भारत के संदर्भ पत्रकारिता कोई एक-आध दिन की बात नहीं है, बल्कि इसका एक दीर्घकालिक इतिहास रहा है। प्रेस के अविष्कार को पुर्नजागरण एवं नवजागरण के लिए एक सशक्त हथियार के रूप में प्रयुक्त किया गया था। भारत में प्रेस ने आजादी की लड़ाई में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन कर गुलामी के दिन दूर करने का भरसक प्रयत्न किया। कई पत्रकार, लेखक, कवि एवं रचनाधर्मियों ने कलम और कागज के माध्यम से आजादी की आग को घी-तेल देने का काम किया।
प्रेस की आजादी को लेकर आज कई सवाल उठ रहे हैं। पत्रकार और पत्रकारिता के बारे में आज आमजन की राय क्या है? क्या भारत में पत्रकारिता एक नया मोड़ ले रही है? क्या सरकार प्रेस की आजादी पर पहरा लगाने का प्रयास कर रही है? क्या बेखौफ होकर सच की आवाज को उठाना लोकतंत्र में ‘आ बैल मुझे मार’ अर्थात् खुद की मौत को सामने से आमंत्रित करना है? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जो आज हर किसी के जेहन में उठ रहे हैं।
बेशक, मीडिया सूचना स्त्रोत के रूप में खबरें पहुंचाने का काम करता है, तो हमारा मनोरंजन भी करता है। मीडिया जहां संचार का साधन है, वही परिवर्तन का वाहक भी है। लेकिन वर्तमान परिप्रेक्ष्य में निरंतर हो रही पत्रकारों की हत्या, मीडिया चैनलों के प्रसारण पर लगाई जा रही बंदिशे व कलमकारों के मुंह पर आए दिन स्याही पोतने जैसी घटनाओं ने प्रेस की आजादी को संकट के घेरे में ला दिया है।
बेंगलुरु में कन्नड़ भाषा की साप्ताहिक संपादक व दक्षिणपंथी आलोचक गौरी लंकेश की गोली मारकर की गई निर्मम व निंदनीय हत्या इसका उदाहरण है। यही ही नहीं इससे पहले नरेंद्र दाभोलकर, डॉ. एम.एम. कलबुर्गी और डॉ. पंसारे की हत्या हो चुकी है। इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ जर्नलिस्ट यानी आई.एफ.जे. के सर्वे के अनुसार अकेले वर्ष 2016 में पूरी दुनिया में 122 पत्रकार और मीडियाकर्मी मारे गए। जिसमें भारत में भी छह पत्रकारों की हत्या हुई है। आज ऐसा कोई सच्चा पत्रकार नहीं होगा जिसे रोज-ब-रोज मारने व डराने की धमकी नहीं मिलती होगी।
माना जाता है कि हाल के दिनों में सरकार की नीतियों पर सवाल उठाने वाले लोगों पर हमले तेज हुए हैं। इसके सबसे ज्यादा शिकार ईमानदार पत्रकार व सच्चे समाजसेवी रहे हैं। उन्मत्त भीड़ द्वारा किए गए हमलों में कई बार सरकार की भी शह होती है। यही वजह है कि वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में भारत तीन पायदान पीछे होते हुए 136 नंबर पर आ गया है यानी भारत में प्रेस की आजादी पर बहुत बड़ा संकट दिखाई पड़ता है।
यूं तो सत्ता और मीडिया में छत्तीस का आंकड़ा रहा है। लेकिन कई बार शक्तिशाली सत्ताएं मीडिया के दमन से भी परहेज नहीं करती। दूसरी बात यह कि कई बार मीडिया भी अपने मूल चरित्र से इत्तर कुछ लाभ के लिए सत्ता और बाजार के हाथों की कठपुतली बन जाती है। इन सब के बावजूद एक तबका ऐसा है जो आज भी स्वतंत्र अखबार के बिना सरकार की मान्यता को खारिज करता है और मीडिया की आजादी के लिए प्रतिबद्ध है।
सवाल उठता है कि क्या मीडिया पर युक्ति युक्त प्रतिबंध मतलब लोगों के मौलिक अधिकार का हनन है? क्या ये आइडिया ऑफ फ्रीडम की मान्यता के खिलाफ है? क्या ये आपातकाल दो का संकट है। इस तरह मूल सवाल यही है कि वर्तमान में मीडिया का चाल, चरित्र और आचरण क्या और क्यों है? तथा उस पर सरकार के नियंत्रण की कोशिश कितनी उचित है? मिशन से प्रोफेशन की ओर बढ़ते मीडिया की संकल्पना बाजारवाद की ओर इंगित करती है।
एडविन वर्क द्वारा मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा गया। वहीं भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (क) के वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जोड़कर देखा जाता है यानी की प्रेस की आजादी मौलिक अधिकार के अंतर्गत आती है। फिर भी सरकार इस पर प्रतिबंध क्यों चाहती है? इसकी कुछ वजह इस प्रकार है- दक्षिणपंथ का असर, सरकार का अधिकारवादी चरित्र, मीडिया की अति-सक्रियता, बाजार का बढ़ता जोर, नागरिक अधिकारों को कमजोर करने की साजिश और सरकारों द्वारा प्रश्नों से परे जाने की चाहत इत्यादि। सरकार चाहे लोकशाही हो या राजशाही, मूल में अधिकारवादी ही होती है। लेकिन मीडिया अपने मूल चरित्र में प्रश्न करता हुआ ही होता है। इसलिए सरकार नहीं चाहती कि कोई उसी कठघरे में खड़ा करें।
जब भी केंद्र में बहुमत की सरकार आती है तब प्रेस की आजादी पर अंकुश लगना प्रारंभ हो जाता है। सन् 1975 में इंदिरा गांधी द्वारा लगाया गया आपातकाल इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। वही स्थिति आज के समय में देखी जा रही है । जहाँ विनोद दुआ,सिद्धार्थ वरदराजन को सच दिखाने सुनाने के लिए प्रताड़ित किया जाता है तो झूठ के समंदर में बैठे अर्नब गोस्वामी पर आत्महत्या के लिए उकसाने के मामले में जेल जाने पर ऐसा होहल्ला किया जाता है जैसे पहली बार किसी पत्रकार पर वज्रपात हुआ है। गौरी लंकेश की हत्या पर जश्न मनाने वाले अर्नब गोस्वामी की गिरफ्तारी पर धरना प्रदर्शन करते दिखाई दिए।इस बात को दरकिनार नहीं किया जा सकता कि आधुनिक समय में मीडिया पर प्रलोभन और धन कमाने की चाहत सवार है। खबरों व डिबेट्स के नाम पर फेक न्यूज का चलन इस बात को पुख्ता करता है। वरन् क्या बात थी कि विदर्भ में किसानों का हाल जानने के लिए केवल छह पत्रकार ही गए और मुंबई के फोटो शो में छह सौ पत्रकारों की भीड़ उमड़ पड़ी।
मीडिया में आम आदमी की समस्याओं से इत्तर होकर अनुपयोगी रियल्टी शो संचालित होने लग गए हैं। पत्रकारिता की जनहितकारी भावनाओं को आहत किया जा रहा है। यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि मीडिया की स्वतंत्रता का मतलब कदापि स्वच्छंदता नही है। खबरों के माध्यम से कुछ भी परोस कर देश की जनता का ध्यान गलत दिशा की ओर ले जाना कतई स्वीकार्य नहीं किया जा सकता। मीडिया की अति-सक्रियता लोकतंत्र के लिए घातक सिद्ध हो रही है। निष्पक्ष पत्रकार पार्टी के एजेंट बन रहे हैं। एक बड़ा पत्रकार तबका सत्ता की गोद में खेल रहा है। आदर्श और ध्येयवादी पत्रकारिता धूमिल होती जा रही है व पीत पत्रकार का पीला रंग तथाकथित पत्रकारों पर चढ़ने लग गया है।
हाल की सरकारें दक्षिणपंथी विचारधारा के कट्टरता में सबसे पहले मीडिया की स्वतंत्र को बाधित करती है और विपक्ष को मृतप्राय बनाकर छोड़ देती है। जिससे जनहितकारी नीतियों की उपेक्षा कर देश में लूटतंत्रकारी नीतियों को आसानी से लागू किया जा सकें। आज मीडिया की दिशा व दशा को लेकर गंभीर चिंतन की आवश्यकता है।