अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश लगा रही सरकार
पत्रकार मनदीप पुनिया को क्यों किया गिरफ्तार?
देशद्रोह जैसे आरोप लगाने के क्या मायने?
विजया पाठक एडिटर,
26 जनवरी 2021 गणतंत्र दिवस दिल्ली की सिंघु बार्डर से लेकर लाल किले की प्राचीर तक जो कुछ भी हुआ उसे पूरे देश ही नहीं बल्कि पूरे विश्व ने देखा। सुरक्षा व्यवस्था पर लगी सेंध की पूरी जिम्मेदारी पहले तो दिल्ली पुलिस प्रशासन ने किसानों पर थोप अपना पल्ला झाड़ लिया। उसके बाद उत्तर प्रदेश पुलिस ने किसानों को भड़काने के लिए पत्रकारों के ऊपर आरोप लगाते हुए उन पर देशद्रोह का आऱोप लगा दिया। रविवार को पत्रकार मनदीप पुनिया को गिरफ्तार कर लिया गया। मनदीप 40 दिनों से किसान आंदोलन पर रिपोर्टिंग कर रहा था। इस मामले पत्रकार संगठनों सहित कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने भी नाराजगी जाहिर की है। देश में लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के साथ इस कदर की तानाशाही मानों अंग्रेज शासन दोबारा लौट आया हो। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने वाली यह सरकार अपनी नाकामियों को छिपा रही है। देखा जाए तो देश का पत्रकारिता जगत इन दिनों अलग-अलग तरह की समस्याओं से घिरा हुआ है। कभी उस पर भ्रष्टाचार तो कभी बिकी हुई मीडिया जैसे शब्दों का संबोधन लगाया जाता है। एक कमी और थी राजद्रोह की वो भी उत्तर प्रदेश सरकार ने लगाते हुए एक किसान की मौत की गलत रिपोर्टिंग के मामले में चर्चित पत्रकार राजदीप देसाई, मृणाल पाण्डे, कौमी आवाज उर्दू समाचार पत्र के मुख्य संपादक जफर आगा, खान कारवां पत्रिका के मुख्य संपादक परेशनाथ, अनंतनाथ, विनोद के जोश समेत आठ लोगों के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया है। अन्य संपादकों के खिलाफ राजद्रोह का मुकदमा दायर कर दिया। इसके साथ ही कांग्रेस के सांसद शशि थरूर पर देशद्रोह के आरोप लगाए गए हैं।
दिलचस्प है कि इन लोगों पर तो संगीन आरोप लगाकर कटघरे में खड़ा कर दिया है और पत्रकारों को भी नही छोड़ा है जबकि इनका काम तो सही रिपोर्टिंग करना है। वहीं लालकिले पर जिस व्यक्ति ने झंडा फहराया था उसे आज तक पुलिस गिरफ्तार नहीं कर सकी है। इससे पहले भी सुशांत सिंह की मौत के मामले में निष्पक्ष खबर दिखाए जाने पर सरकार ने पत्रकार अर्णब गोस्वामी के खिलाफ षडयंत्र रचा और उनको तक जेल भिजवा दिया। आशय साफ है यदि मीडिया ने सरकार की नाकामियों को अपने चैनल या अखबार के माध्यम से लोगों तक पहुंचाना चाहा तो उसके खिलाफ देशद्रोह, राजद्रोह, दंगा भड़काने जैसे आरोप लगाकर उसको शांत करवा दो, फिर भी न माने तो उसको जेल भिजवा दो। कुल मिलाकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को अपने शिंकजे में कसना चाहती है। अगर अभी नहीं चेते तो आने वाले दिनों में मीडिया की स्वतंत्रता को लेकर और समस्याएं बढ़ सकती है। इसलिए इस पूरी मुहिम में पत्रकारों को आगे आकर सरकार के इस तरह के फैसलों का बहिष्कार करना ही एक मात्र उपाय है, जिससे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बचाया जा सकता है। राजनेताओं, किसान नेताओं और पत्रकारों पर राष्ट्रद्रोह जैसे अपराध के मामले दर्ज करने के क्या मायने? क्या इन्होंने ऐसे अपराध किया था कि इन पर राष्ट्रद्रोह जैसे संगीन आरोप लगाए गये। आखिर इसके पीछे सरकार की क्या मंशा है। क्या सरकार संगीन आरोप लगाकर आंदोलन को कुचलना चाहती है या किसान संगठनों पर डर का माहौल बनाना चाहती है। इसके साथ ही किसान नेता दर्शन पाल, राजिंदर सिंह, बलबीर सिंह राजेवल, बूटा सिंह बुर्जगिल, जोगिंदर सिंह उगराहा के खिलाफ मुकदमा दर्ज हुआ है। ये सभी किसान नेता कृषि कानूनों के खिलाफ चल रहे आंदोलन की अगुवाई कर रहे हैं। इससे पहले दिल्ली पुलिस ने गणतंत्र दिवस पर किसानों की ट्रैक्टर परेड़ में हुई हिंसा मामले में 200 लोगों को हिरासत में लिया गया।
कब लगती है देशद्रोह की धारा- इंडियन पैनल कोड (आईपीसी) की धारा 124 ए में राजद्रोह की परिभाषा के अनुसार अगर कोई व्यक्ति सरकार-विरोधी सामग्री लिखता या बोलता है, ऐसी सामग्री का समर्थन करता है, राष्ट्रीय चिन्हों का अपमान करने के साथ संविधान को नीचा दिखाने की कोशिश करता है तो उसके खिलाफ आईपीसी की धारा 124ए में राजद्रोह का मामला दर्ज हो सकता है। देश विरोधी संगठन के खिलाफ अगर कोई अनजाने में भी संबंध रखता है। संगठन का किसी भी तरीके से सहयोग करता है तो उसके खिलाफ भी राजद्रोह का मामला बन सकता है। इस कानून के तहत दोषी पाए जाने पर अधिकमत उम्र कैद की सजा का प्रावधान है।
राजद्रोह को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा था?- 1962 में केदारनाथ बनाम बिहार राज्य केस में सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी थी कि सरकार की आलोचना या फिर प्रशासन पर टिप्पणी करने भर से राजद्रोह का मुकदमा नहीं बनता। सुप्रीम कोर्ट के 7 जजों की संवैज्ञानिक बेंच ने अपने आदेश में कहा था कि राजद्रोह के मामले में हिंसा को बढ़ावा देने का तत्व मौजूद होना चाहिए. महज नारेबाजी करना देशद्रोह के दायरे में नहीं आता। बलवंत सिंह बनाम पंजाब राज्य के मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने 1995 में कहा था कि महज नारेबाजी करना राजद्रोह नहीं है। दो लोगों ने उस समय खालिस्तान की मांग के पक्ष में नारे लगाए थे और सुप्रीम कोर्ट ने उसे राजद्रोह मानने से इन्कार कर दिया था।