परंपरागत अनुष्ठानों का अनुपालन व्यक्तिगत चयन होता है

(करवा चौथ पर विशेष)

आज मनुष्य चांद पर पहुंचने के अभ्यस्त होने के बाद वहाँ बसने की बात सोचने लगा है जो कि मानव-जाति के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण उपलब्धि है। कहने का तात्पर्य यह है कि विज्ञान के इस युग में जीवन के लगभग सभी क्षेत्रों में नित नए अनुसंधान हो रहे हैं और हम बहुआयामी विकास की ओर अग्रसर हो रहे हैं लेकिन क्या बौद्धिक विकास से ही मनुष्य का सर्वांगीण विकास सम्भव है? नहीं उसमें भावनात्मक विकास भी जरूरी है इसीलिए विभिन्न त्योहार, उत्सव, विशेष दिनों को इतना महत्व दिया जाता है क्योंकि ये मनुष्य की नीरस दिनचर्या में नव ऊर्जा का संचार करते हैं, मन में उत्साह व उमंग भरते हैं तथा सुख शांति व समृद्धि का अरुण प्रभात लेकर आते हैं। ये सभी त्योहार हमारी संस्कृति की महानता को उजागर करते हैं। इन उत्सवों के माध्यम से हम विभिन्न दिव्य शक्तियों को, मानवीय रिश्तों को, भावनाओं को समर्पित करते हुए उनके प्रति प्रेम, आदर सम्मान अपना कर्तव्य और संकल्प में प्रगाढ़ता लाते हैं। जैसे कि जरूरी डॉक्युमेंट्स को एक निश्चित समय सीमा के बाद नवीनीकरण करवाना पड़ता है वैसे ही हमारे अंदर की सुषुप्त विचारों, भावनाओं को दिलोदिमाग में बसाए रखने के लिए उनकी अहमियत समझने के लिए कई अनुष्ठान बनाए गए हैं ताकि हमारे अंदर दया, करूणा, सरलता, पारस्परिक प्रेम, आतिथ्य सत्कार एवं सद्भावना तथा परोपकार जैसे नैतिक गुणों के संवर्धन की ओर ध्यान रहे और नैतिक मूल्यों को धारण किए हुए हमारे व्यक्तित्व में चारित्रिक अथवा भावनात्मक बल मजबूत रहे। जैसे आज करवा चौथ का पावन अवसर है जब देश के विभिन्न हिस्सों में सुहागिन महिलाएं अपने जीवन साथी के स्वस्थ वह दीर्घायु जीवन के लिए प्रार्थना करती हैं। निर्जला व्रत रखती हैं और सच्चे मन से पति पत्नि के पवित्र रिश्ते को समर्पित करते हुए ये त्योहार मनातीं हैं। इसके पीछे पौराणिक कथाएं और विभिन्न अनुष्ठान तो अपनी जगह है और देश के अलग अलग राज्यों वह शहरों में उनमें भिन्नता भी पायी जाती है लेकिन त्योहार का एक विशेष संदेश सबके लिए एक ही है जो पति पत्नि के प्रेम की प्रगाढ़ता को दर्शाता है और आजीवन एक दूजे की अच्छाइयों और बुराईयों को स्वीकार करते हुए साथ निभाने का संकल्प लेते हैं। सामूहिक सामाजिक स्तर पर मनाने से य़ह आपसी भाइचारे, खुशी उत्साह में इजाफ़ा करते हैं और हम सबको एक सूत्र में पिरोए रखते हैं। कई रूढ़ीवादी मान्यताएं बहुत से लोगों को स्वतंत्र मन से करवा चौथ हो या कोई भी त्योहार के मूल भाव को आत्मसात करते हुए त्योहार मनाने में अवरोध उत्पन्न करते हैं जैसे इस त्योहार की बात करें तो महिलाएं पति के देहांत होने के बाद भी सुहागिन आभूषण धारण करना चाहतीं हैं, कई महिलाएं अपने पति से दिलोजान से प्यार करतीं हैं परंतु स्वास्थ्य या कई दूसरी मजबूरियों के कारण वे व्रत नहीं रख पाती लेकिन समाज उन्हें सवाल करने लगता है और उन्हें हीन भावना का शिकार होना पड़ता है। कल जब मुझे करवा चौथ की मेहंदी लग रही थी तभी एक 80 साल की जान पहचान की महिला का फोन आया कि उन्हें भी मेहंदी लगवाना है, कुछ महिलाएं आश्चर्य भी करने लगीं पर मुझे खुशी हुई कि उनके पति के स्वर्गलोक में होने के बावजूद उन्हें उनके सम्मान में अपनी हथेली को मेहंदी से सजाने की हसरत थी और क्यों न हो आखिर पति को अगर परमेश्वर कह्ते हैं तो ऐसी महिलाओं के पति परमेश्वर में विलीन हो चुके हैं औऱ अदृश्य हैं पर प्रेम तो सतत बना ही रहेगा। इस प्रकार की शुद्धता, पवित्रता, व मूल रूप को बनाये रखने का दायित्व हम सभी का है। कई आडम्बर और अस्पष्ट रीति रिवाजों को नजर अंदाज करते हुए ही हम मूल भावना के महत्व को बढ़ावा दे सकते हैं और समाज की मानसिकता में जरूरी बदलाव लाया जा सकता है।

शशि दीप ©✍
विचारक/ द्विभाषी लेखिका
मुंबई
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