अहंकार का स्वादिष्ट व्यंजन है उपलब्धि!

 

अभी पिछले सप्ताह 15 दिसम्बर 2022 को पत्रकार/लेखिका के रूप में इस अदनी सी चिन्तक को एक और उपलब्धि मिली जब ईश्वर की असीम कृपा से मुंबई में एक भव्य गरिमामय समारोह में मुझे मीडिया एक्सीलेंस 2022 से सम्मानित किया गया। सर्वप्रथम ईश्वर के प्रति हार्दिक कृतज्ञता कि आयोजकों ने मेरे पसंदीदा क्षेत्र के प्रति मेरे समर्पण, निष्ठा व सच्ची सेवा का सम्मान कर मुझे अनुग्रहित किया। मैं अत्यंत अभिभूत हूँ।

खैर मैं सम्मान मिलने का शुभसमाचार तो एक उदाहरण है लेकिन अब सम्मान मिलने के बाद जो एहतियात बरतना होता है मैं उस ओर पाठकों का ध्यान चाहूँगी। यह एक दिलचस्प चिंतन है। ईश्वर से लगातार जुड़े रहने से इस बात का भान होता है कि उपलब्धि मिलते ही आत्ममुग्धता ऐसे हावी होना शुरू होता है कि बस इंसान का अहंकार बढ़ने लगता है। वो सोचता है मैंने कुछ पाया है अब मैं आम नहीं खास हूँ, साधारण नहीं असाधारण हूँ। इसी गहन चिंतन और आत्मबोध के परिणामस्वरूप मैं नयी उपलब्धि साझा तो कर देती हूँ पर फिर खुद को संयमित रखना और अहंकार की परत चढ़ने न पाये इसका ध्यान रखते हुए अपने मूल ध्येय पर अडिग बनी रहने में प्रयासरत रहती हूँ। मैंने गंभीरता से अनुभूत किया है कि उपलब्धि व अहंकार अक्सर सम्मिलन की चाह रखते हैं, इसीलिए प्रायः साथ-साथ पाये जाते हैं। होता यूँ है ज्यों-ज्यों उपलब्धियों का विमान गगन की ओर अग्रसर होता जाता है, इंसान का ज़मीन से जुड़ाव लगातार घटता जाता है, इंसान भरपूर प्रशंसा पाता जाता है, और जाने-अनजाने उसका अह्म बढ़ता जाता है। प्रतिदिन आत्मचिंतन के अभाव में, वह आत्ममोह में डूबता जाता है और जब उपलब्धि व अहंकार में घनिष्टता बढ़ने लगती है, उन्नयन के पथ में गति-अवरोधक बनने लगता है। इसलिए चाहे प्रशंसा की झड़ी लग जाये, घर की दीवारें, अलमारियाँ सर्टिफिकेट्स और मोमेंटोस से भर जाये, और तन-मन ख़ुशी से झूमने लगे, तो बस ईश्वर को समर्पित कर आखें बंद कर उन्हें ही अर्पण कर देना श्रेष्ठ है। हाँ अपनों की दुआओं के बिना हर ख़ुशी अधूरी है, परंतु ध्यान रहे उपलब्धि अहंकार का स्वादिष्ट व्यंजन है जिसे खा कर वह पुष्ट होता है और पुष्ट अहंकार सदैव घातक है जैसे ज्यादा वसायुक्त भोजन हमारे हृदय  के लिये घातक है। अहंकार का इकहरा एवं छरहरा रहना ही श्रेष्ठ है | मैं मैं तो रहे पर मैं ही में रहे मैं-मैं न करे। सर कितना भी ऊँचा हो जाए सदा विनम्र बन झुका रहे पंख कितने भी प्रबल हो जाए पाँव जमीं पर टिका रहे। जो निर्बल को निज हाथ थमाये वही सबल दीनानाथ कहाए। एक लोकप्रिय भजन “वैष्णव जन तो तेने कहिये जे पीड़ परायी जाणे रे पर दुख्खे उपकार करे तोये मन अभिमान ना आणे रे” में भी इसी भाव पर जोर दिया गया है। निस्वार्थ भाव नेतृत्व का बल है स्वार्थवश किया नेतृत्व छल है।

 

शशि दीप ©✍

विचारक/ द्विभाषी लेखिका

मुंबई

shashidip2001@gmail.com