सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को कहा है कि कोरोना महामारी के कारण सरकार की तरफ से घोषित लॉकडाउन की तुलना आपातकाल से नहीं की जा सकती। कोर्ट ने यह भी कहा कि आपातकाल के दौरान एडीएम जबलपुर मामले में दिया गया उसका फैसला प्रतिगामी था। इसके साथ ही जस्टिस अशोक भूषण, जस्टिस एमआर शाह और जस्टिस वी रामासुब्रमण्यम की पीठ ने मद्रास हाईकोर्ट के उस फैसले को पलट दिया जिसमें कहा गया था कि लॉकडाउन आपातकाल की घोषणा के समान है।
पीठ ने कहा, हम हाईकोर्ट के इस आदेश से कतई सहमत नहीं है। इस तरह की घोषणा से जीने के अधिकार और निजी स्वंतत्रता के अधिकार को निलंबित नहीं किया जा सकता है। कोर्ट ने एक आरोपी को जमानत देने के आदेश में यह बातें कही हैं। कोर्ट ने वरिष्ठ वकील सिद्धार्थ लूथरा की उस दलील को स्वीकार कर लिया कि लॉकडाउन के मद्देनजर सुप्रीम कोर्ट की तरफ से याचिका, सूट और अपील दायर करने की समयसीमा बढ़ाने का लिया गया निर्णय पुलिस को आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा-167 के तहत आरोप पत्र दाखिल करने पर लागू नहीं होता। पीठ ने आरोपी को तय समयसीमा (60 या 90 दिन) के भीतर चार्जशीट दायर न करने के आधार पर जमानत देने का निर्णय लिया।
पीठ ने शीर्ष अदालत के आपातकाल के दौरान 1976 के अपने फैसले को प्रतिगामी करार देते हुए कहा, जीवन जीने का अधिकार और निजी स्वंतत्रता ऐसी घोषणाओं के दौरान भी कानून की नियत प्रक्रिया के बिना छीने नहीं जा सकते। अदालत ने एडीएम जबलपुर मामले के फैसले का उल्लेख किया जिसमें बेंच ने बहुमत ने माना था कि अनुच्छेद- 352 के तहत आपातकाल घोषित होने पर अनुच्छेद 21 के तहत मिले अधिकार लागू करने के लिए कार्यवाही नहीं की जा सकती। कोर्ट ने कहा, उस फैसले में अनुच्छेद-21 के तहत मिले अधिकार के संबंध में उठाए प्रतिगामी कदम को 1978 में संसद की तरफ से 44वें संविधान संशोधन के जरिए पहले ही पलट दिया गया है। इसके तहत यह साफ कर दिया गया हैं कि अनुच्छेद 20 और 21 के तहत मिले अधिकारों को आपातकाल के दौरान भी निलंबित नहीं किया जा सकता।