अविश्वास का दंश बचपन को खा गया
मासूम कृष्णेंदु द्वारा आत्महत्या समाज के असंवेदनशील होने का प्रमाण
डॉक्टर सैयद खालिद क़ैस
लेखक, पत्रकार, समीक्षक
आज सोशल मीडिया पर अचानक एक खबर ने मुझे विचलित कर दिया। घटना इतनी दिल दहलाने वाली थी कि उसने मेरी अंतरात्मा तक को झकझोर दिया। किस तरह एक गरीबी की सच्चाई को ज़माने वाले झुठलाकर उसकी सच्चाई को नकार कर झूठ बना देते हैं और एक निर्दोष होकर भी कोई सूली पर चढ़ जाता है। ऐसा ही एक मामला 23/05/2025को पश्चिम बंगाल के पांशकुड़ा में घटित हुई और प्रकाश में आई जिसकी सच्चाई सुनकर हर कोई अवाक रह जाएगा।
दरअसल पश्चिम बंगाल के पांशकुड़ा में एक 13 साल का मासूम बच्चा कृष्णेंदु दास जो सातवीं कक्षा में पढ़ता था पर एक दुकानदार ने उसकी दुकान से चिप्स के पैकेट चुराने का आरोप लगाकर उसकी पिटाई कर दी। बच्चा बार-बार कहता रहा कि उसने मिठाई की दुकान से तीन चिप्स के पैकेट नहीं चुराए। उसने तो दुकान के बाहर खाली पड़े चिप्स के पैकेट उठाए थे। दुकान संचालक शुभंकर दीक्षित जो समाजसेवी भी था ने बिना सोचे समझे एक मासूम पर अपनी मिठाई दुकान से तीन पैकेट चिप्स के चुराने का आरोप लगाते हुए उस मासूम को न सिर्फ थप्पड़ मारे वरन उससे उठक-बैठक भी करवाई। मासूम लगातार कहता रहा कि उसने चिप्स के पैकेट नहीं चुराए उसको खाली पैकेट सड़क पर पड़े मिले थे लेकिन दुकानदार ने उसकी एक न सुनी और एक ऐसे झूठे आरोप के लिए उसे दंडित किया जो उसने किया ही नहीं था।मासूम के आत्मसम्मान, उसके विश्वास, उसके मासूम बचपन से खिलवाड़ करने वाले दुकानदार ने सच्चाई जाने बगैर उस मासूम के कोमल निर्मल हृदय को न सिर्फ चोटिल किया वरन उसकी मासूम जिंदगी का अंत भी कर दिया।
दरअसल दुकानदार द्वारा लगाए गए आरोप और दिए दंड के बाद जब मासूम अपने घर पहुंचा तो घर लौटने पर उसकी माँ ने भी उसकी बात नहीं सुनी और गुस्से में आकर उसको न सिर्फ डांटा बल्कि उसके थप्पड़ भी मारा। पहले दुकानदार द्वारा अपमानित होकर झूठे आरोप में दंडित होने वाले 13 साल के मासूम बच्चे कृष्णेंदु दास को जब उसकी मां द्वारा भी दोषी मानकर सज़ा दी तो वह टूट गया और उसने कीटनाशक पी लिया जिसके कारण अगले दिन उसकी मौत हो गई। मरने से पहले उस मासूम ने एक सुसाइड (एक छोटा सा कागज़) नोट लिखा जिसमें उसने लिखा “मां, मैंने चिप्स नहीं चुराए। मुझे सड़क पर पड़े मिले थे। मैंने चोरी नहीं की।” और इस तरह एक मासूम बच्चे की जान चली गई। बाद में सीसीटीवी फुटेज से उसकी बेगुनाही उजागर हुई लेकिन तब तक देर हो चुकी। एक बेगुनाह बच्चा सच्चा होने के बावजूद समाज की गंदी मानसिकता और बिना पड़ताल के लगाए आरोप के कारण बलि वेदी पर चढ़ गया। उसको इस बात का मलाल नहीं था कि दुकानदार ने उस पर झूठा आरोप लगाया। उसे इस बात का भी रंज नहीं था कि निर्दोष होते हुए भी दुकानदार ने उसको सार्वजनिक रूप से न सिर्फ तमाचे मारे बल्कि उसको उठक-बैठक लगाकर समाज के सामने अपमानित किया उसे दुख इस बात का था कि उसकी जन्मदात्री ने भी उसकी सच्चाई को नज़र अंदाज कर उसको दंडित किया। वह टूटकर बिखर गया। उसे अपनी सच्चाई को उजागर करने से बेहतर मौत को गले लगाना आसान दिखा। लेकिन उसके कोमल हृदय में एक टीस थी, उसे अपनी मां के सामने अपनी सच्चाई, अपनी बेगुनाही उजागर करनी थी जो सुसाईड नोट की शक्ल में छोड़कर हमारे सामने एक ज्वलनशील मुद्दा छोड़ गया। क्या चिप्स के पैकेट की चोरी का आरोप लगाने वाले को बिना सोचे समझे उसको सार्वजनिक रूप से दंडित करना चाहिए था? क्या एक मासूम बच्चे की भूल जो कि उसने की नहीं कोई साक्ष्य के अभाव में उसको सजा देने की भूल माफी योग्य है? यह कहानी एक मासूम की मौत की कहानी नहीं यह हमारे समाज की उस सोच की कहानी है, जो बिना सुने, बिना समझे, सिर्फ दोषी ठहराने में यकीन रखती है। मासूम बच्चे कृष्णेंदु की कहानी सिर्फ एक आत्महत्या की नहीं है — यह एक समाज के असंवेदनशील होने की कहानी है। यह उस पल की तस्वीर है जब एक बच्चा चुप हो जाता है क्योंकि उसके अपने भी उसकी बात नहीं सुनते। उसकी मासूमियत उसकी बेगुनाही पर कोई विश्वास नहीं करता।अब सवाल यह है कि दुकानदार को यदि ऐसा लगा कि बच्चे ने गलती की तो उसे बिना सच जाने उसको दंडित नहीं करना चाहिए था। यदि उसने गलती की भी होती तो क्या कोई बच्चा अपमानित करने से सुधर सकता है? मासूम बच्चे की मौत के हम सब जिम्मेदार हैं जो बिना सच जाने उसे दोषी ठहरा कर दंडित कर बैठे। इस घटना से हमें सबक लेना चाहिए कि माता-पिता को, शिक्षकों को, और समाज को यह समझना होगा कि बच्चे केवल अनुशासन नहीं, समझदारी भी चाहते हैं। हर बार सज़ा ही हल नहीं होती — कई बार एक गले लगाना ज़िंदगी बचा सकता है।
आज वह मासूम दुनिया में नहीं हैं।उसका सुसाईड नोट उसकी बेगुनाही को चीख-चीख कर बोल रहा है। सीसीटीवी फुटेज यदि दुकानदार देख लेता तो बच्चे की मौत नहीं होती। उस मासूम के वह बोल कि”मैंने चोरी नहीं की…”ये शब्द हमारे ज़मीर को तब तक काटते रहेंगे, जब तक हम बदल नहीं जाते। आरोपी दुकानदार शुभंकर दीक्षित अब फरार है। पुलिस ने केवल “अप्राकृतिक मृत्यु” का मामला दर्ज किया है। किसी ने अभी तक कोई शिकायत नहीं की है। और उसकी मौत की फाइल हमेशा के लिए बंद हो गई। लेकिन क्या यह उस मासूम के साथ अन्याय नहीं हैं? क्या समाज को आगे नहीं आना चाहिए?क्या हमें अपनी सोच में परिवर्तन नहीं लाना होगा? क्या मासूम बच्चे के साथ जो हुआ उसकी पुनरावृति को हम रोक सकते हैं?
हमें विचार करना होगा। हमें सबक लेना होगा इस घटना से। हमें अपने जीवन में इस बात को महत्व देना होगा कि बिना सोचे समझे किसी मासूम पर लगाया गया आरोप उसकी मनोदशा पर क्या प्रभाव डालेगा।