पुस्तकों की संख्या नहीं उत्सुक पाठकों की संख्या बढ़ाना लेखकों का ध्येय हो!
जब कभी भी किसी साहित्यकार, लेखक/कवि से मेरी साहित्यिक चर्चा होती है तो इस बात का ज़िक्र ज़रूर होता है कि उनकी किताबें कौन-कौन सी हैं, अब कितनी किताबें प्रकाशित हुई। मेरी तो अभी तक सिर्फ एक ही किताब प्रकाशित हुई है लेकिन ईश्वर कृपा से मैं बरसों से निरंतर अंग्रेजी व हिन्दी दोनों भाषाओं के लेखन, सृजन में लगी हुई हूँ। इसलिये कई साहित्यकार समझते हैं मेरी ढेर सारी किताबें प्रकाशित हो चुकी होंगी क्योंकि आजकल यही हो रहा है। नवोदित लेखक जैसे ही लेखनी में पदार्पण करते हैं, इतने प्रकाशक या साझा संकलन के विकल्प मौजूद हैं कि चार से दस हज़ार रूपये लगाये और बन गए किताब के लेखक। जबकि हम तो करीब बारह साल की साधना में सिर्फ एक ही किताब प्रकाशित कर पाए कारण यह है कि हमने साझा संकलन वाली किताबें और अपनी किताबों की संख्या बढ़ाना, को अपनी लेखनी का उद्देश्य कभी नहीं समझा। आजकल अधिकतर साहित्यकार अपने किताबों की संख्या तो बढ़ाते रहते हैं पर उन्हें इस बात की परवाह नहीं कि किताब कितने पाठकों तक पहुँच पायी और मुझे इसी बात को सबसे बड़ी प्राथमिकता देना सार्थक लगता है। इसलिये भले इतने वर्षों में मेरी एक ही किताब वेव्स वीथिन होराइजन एंड बियॉन्ड प्रकाशित हुई लेकिन ये लेकिन इस एक किताब को ही पाठकों का भरपूर प्यार मिला और ये बेस्टसेलिंग साबित हुई। इसलिए मुझे बेहद सन्तुष्टि है और आगे भविष्य में भी मेरी लेखनी का ध्येय यही रहेगा क्योंकि मेरा मानना है पुस्तक और पाठक का जोड़ा दुनिया में सबसे खूबसूरत जोड़ों में से एक होता है। इसलिये पुस्तकों की संख्या बढ़ाने से ज़्यादा ज़रूरी है, पुस्तक प्रेमियों की संख्या बढ़ाना। हर किताब के पीछे इतनी मेहनत करना कि पाठकों की आत्मा को छू ले। किताब में लिखी बातें लेखक द्वारा महज़ उपदेशात्मक भाव से लिखी हुई सामग्री न हो बल्कि लेखक द्वारा अनुभूत की हुई बातें हों तभी पाठक अपने जीवन से संबद्ध कर कंटेंट के सार को आत्मसात कर सकता है या प्रेरणा ग्रहण कर सकता है। कभी गौर करें तो एक उत्सुक पाठक एकांत में लीन पुस्तक में खोया रहता है, बेहद आनंदित अनुभूत करता है और लेखक के कथानक के साथ-साथ विभिन्न चरित्रों का मानों प्रत्यक्षदर्शी होता है, देश-दुनिया, प्रकृति, मानवीय भावों व विभिन्न विधाओं के अनुसार एक अलग ही दुनिया में होता है। इस अनुभूति को पूरी तरह से कलमबद्ध कर पाना भी लगभग नामुमकिन है, ये तो वही जानता है जो पुस्तक प्रेमी होता है। पुस्तकें मनुष्य के आत्मबल का सर्वश्रष्ठ साधन है। महान देशभक्त एवं विद्वान् लालालाजपत रॉय ने इसीलिए एक बार कहा था मैं पुस्तकों का नर्क में भी स्वागत करूँगा क्योंकि इनमें वह शक्ति है जो नर्क को भी स्वर्ग बनाने की क्षमता रखती है।
श शि दीप ©✍विचारक/ द्विभाषी लेखिका मुंबई
Shashidip2001@gmail.com