शकील अख्तर
करीब ढाई साल बाद राहुल गांधी जब वापस अमेठी पहुंचे तो उनका जैसा स्वागत हुआ वह चकित कर देने वाला था। छह किलोमीटर की लंबी जनसम्पर्क यात्रा में तिल धरने की जगह नहीं थी। लोग उमड़े पड़ रहे थे और सबसे खास बात यह थी कि उत्साह में थे। उनके साथ छोटी बहन प्रियंका भी थीं। जो 2004 में भी राहुल को अमेठी लेकर गईं थीं। उनका परिचय करवाते हुए कहा था यह मेरे बड़े भाई है। यहां से चुनाव लड़ेंगे। आपको समर्थन देना है।
प्रियंका राजनीति में बहुत देर से आई मगर अमेठी रायबरेली बहुत पहले से आती रही हैं। 40 साल पहले 1981 में जब राजीव गांधी पहली बार चुनाव लड़े तो छोटी सी प्रियंका बाब कट बाल में राजीव के साथ वहां आईं थीं। लोगों ने उन्हें प्यार से भैया जी कहा। आज भी अमेठी और रायबरेली में उन्हें भैया जी कहा जाता है। और वैसा ही प्यार और सम्मान मिलता है।
2019 की अमेठी की हार ने राहुल से ज्यादा प्रियंका को चोट पहुंचाई थी। 1999 में जब अमेठी से पहली बार सोनिया चुनी गईं। तब से प्रियंका ही अमेठी और रायबरेली का काम देख रही थीं। सोनिया और राहुल का अपने संसदीय क्षेत्रों में कम दखल था सभी महत्वपूर्ण फैसले प्रियंका ही करती रही हैं। लेकिन वहां के लोगों की नाराजगी का सिलसिला 2014 से ही शुरू हो गया था। जैसी अभी दोनों ने अमेठी में संयुक्त रैली निकाली वैसी ही 2014 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले अमेठी के जायस में निकालना पड़ी थी। उससे पहले कभी संयुक्त रैली की जरूरत नहीं पड़ी थी। सच तो यह है कि राहुल और सोनिया अपने संसदीय क्षेत्रों में चुनाव के दौरान भी गिनती के बार ही जाते थे। प्रियंका ही सारी चुनाव व्यवस्था करती थीं। प्यार से, डांट कर, लड़ कर वे कार्यकर्ताओं से काम लेती रहती थीं। मगर दस साल सरकार के दौरान वहां बीच के कुछ लोग ज्यादा ही मद मस्त हो गए थे। उन पर नियंत्रण नहीं हो सका था। जिन्हें क्षेत्र की जिम्मेदरी दी गई उन्होंने कार्यकर्ताओं की बात सुनना, जनता से मिलना बंद कर दिया था। ऐसा नहीं है कि यह शिकायतें गांधी नेहरू परिवार के पास नहीं पहुंची थीं मगर जिस पर विश्वास कर लिया, उस पर कर लिया के स्वभाव से मजबूर परिवार ने बरसों से जमे लोगों के खिलाफ कुछ नहीं किया। और ज्यादा सच यह है कि सुनना भी पसंद नहीं किया। नतीजा यह हुआ कि प्रसिद्ध कवि मलिक मोहम्मद जायसी के नाम पर बसे शहर जायस की रैली से प्रियंका बाजी पलटने में तो सफल हो गईं। राहुल जीते मगर बहुत कम मार्जन से। केवल 12 प्रतिशत के अंतर से। जबकि 2009 में 57 प्रतिशत के शानदार फर्क से वे जीते थे। 2014 से 2019 तक बहुत समय था मगर कोई समीक्षा नहीं हुई। उन लोगों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई जिनकी वजह से लोगों में नाराजगी थी। नतीजा राहुल की हार के रूप में सामने आया। मगर यह कुछ खास नहीं था। 2014 के घटनाक्रम का विस्तार ही था। अमेठी में भी और देश में भी।
परिवार ने जिस तरह अमेठी में जमे हुए लोगों को नहीं हटाया। वैसे ही देश की राजनीति में भी किया। दस साल यूपीए की सरकार रही। और दस साल पूरे एक ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को दिए। एक ही उप राष्ट्रपति हामिद अंसारी को दिए। 15 साल दिल्ली में शीला दीक्षित, असम में गगोई, दस साल हरियाणा में भुपेन्द्र हुड्डा को दिए। इसके बहुत सारे आफ्टर इफेक्ट हुए। नया नेतृत्व विकसित नहीं हो पाया। सैंकड लाइन के नेता निराशा से भरते चले गए। जम गए नेताओं ने कार्यकर्ताओं की बात सुनना बंद कर दिया। नए आइडिए आना बंद हो गए। और सबसे बड़ी नेता खुद को शक्ति समझने लगे। जनता वोट देती थी कार्यकर्ताओं की मेहनत और परिवार के प्रति आस्था के कारण। नेता यह समझने लगे कि वोट उन्हें मिलते हैं।
अभी पंजाब में कैप्टन अमरिन्द्र सिंह का उदाहरण ताजी है। विधायकों का बहुमत खोते ही उन्होंने सीधा यू टर्न ले लिया। भाजपा से मिल गए। ऐसे ही जी 23 के कई नेता भाजपा के साथ जाने की जुगाड़ में लगे हुए हैं। अभी जम्मू कश्मीर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के पदाधिकारी जयपुर के मंहगाई हटाओ सम्मेलन से लौटते हुए दिल्ली में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से मिले थे। सोनिया ने दुखी भाव से उनसे पूछा कि गुलाम नबी आजाद को क्या नहीं दिया? अब और क्या चाहिए ? आजाद जम्मू कश्मीर में मोदी की तारीफ करते हुए, राहुल और प्रियंका पर सवाल उठाते हुए घूम रहे हैं। बिना प्रदेश कांग्रेस को विश्वास में लिए खुद सम्मेलन कर रहे हैं। 26 दिसंबर को सीमावर्ती क्षेत्र छम्ब में एक बड़ा सम्मेलन प्लान किया है। सोनिया ने जम्मू कश्मीर के नेताओं से पूछा कि इस समय भाजपा और मोदी से लड़ने की जरूरत है या कांग्रेस से?
जम्मू कश्मीर के नेता क्या जवाब देते? वे तो आज से कई साल पहले कह चुके थे कि आजाद अपने लोगों को आगे बढ़ा रहे हैं। कांग्रेस के वफादार लोगों को नहीं। मगर जैसा कि परिवार की आदत है कि वह शिकायत नहीं सुनती। इसे भी तथ्य नहीं शिकायत माना गया। कम लोगों को याद होगा कि कई साल पहले कांग्रेस में एक अखिल भारतीय महासचिव गुलचैन सिंह चांडक बनाए गए थे। इन्हें बिहार का इन्चार्ज बनाया गया था। यह कौन थे किसी को नहीं पता। कांग्रेस में महासिचव पद और फिर राज्य का इन्चार्ज बहुत बड़ा पद होता है। लेकिन जम्मू से आने वाले स्कूल, कालेजों और प्रापर्टी के बड़े कारोबारी के रुप में पहचान रखने वाले यह शख्स कांग्रेस में अचानक बड़े नेता बन गए। किस की मेहरबानी से? और क्यों? इससे बिहार को कितना नुकसान हुआ? यह एक अलग अध्याय है। मगर कांग्रेस में पूरी जिन्दगी गुजार देने वाले लोग सेकेट्री नहीं बन पाते। ये जनरल सैकेट्री बनकर दिल्ली कांग्रेस मुख्यालय में बैठते थे।
जम्मू कश्मीर के पार्टी के समर्पित नेताओं ने यह उस समय भी पूछा था। मगर जैसा कि परंपरा है जिस पर विश्वास है आंखे बंद करके है। तो वह किसी भी नाम की सिफारिश कर दे उसे ऊंचे से ऊंचा ओहदा दे दिया जाएगा। बहुत उदाहरण हैं। उन सचिन तेंदुलकर को राज्यसभा और भारत रत्न तक दे दिया गया। जो अभी किसानों के खिलाफ ट्वीट कर रहे थे।
लेकिन अभी अमेठी के लोगों ने वापस राहुल का दिल से स्वागत करके बताया कि जनता इस परिवार को प्यार करती है और विश्वास करती है। हार जीत अलग बात है। मगर रायबरेली तो 1952 के पहले चुनाव से जब फिरोज गांधी जीते थे से लेकर अमेठी जहां से 1980 में संजय गांधी पहला चुनाव जीते थे तक परिवार को जिताती रही। एक बार 1977 में रायबरेली से इन्दिरा गांधी को और 2019 में अमेठी से राहुल को छोड़कर। परिवार भी इस प्यार को जानता है। इसलिए बार बार ताकत वापस आने यहीं आता है।
अमेठी की हवा बाकी यूपी में कितना असर करेगी कहना मुश्किल है। मगर यह परिवार के लिए जरूर सबक है कि जनता, उससे तो कभी ये विमुख हुए नहीं। और कार्यकर्ता जिसकी सुनवाई जरूर कमजोर हो गई है के महत्व को फिर से स्थापित किया जाए। नेताओं की पार्टी और सिद्धांतो के लिए प्रतिबद्धता की कसौटी कड़ी की जाए। यूपीए के दस साल ये नेता मंत्री पदों और संगठन के महत्वपूर्ण स्थानों पर रहकर क्या कर रहे थे इसकी पार्टी जांच करे। गलत लोगों को अगर अभी भी प्रश्रय देना बंद नहीं किया गया तो राहुल और प्रियंका की राजनीति में यह समस्या बनते रहेंगे। भाजपा, सपा, बसपा, आरजेडी, टीएमसी, आप, कम्युनिस्ट पार्टियां, एनसीपी, शिवसेना, अकाली किसी भी पार्टी में ऐसी अनुशासनहीनता है? कहीं कोई अपने शीर्ष नेता को चुनौती देते घूमता है? कांग्रेस को यह समझना चाहिए।