दो साल बाद भी सफल नहीं साबित हुई भोपाल पुलिस कमिश्नर प्रणाली

डॉक्टर सैयद खालिद कैस
समीक्षक, लेखक, पत्रकार

वर्ष 2021के अंतिम माह में दिल्ली में पुलिस महनिदेशक और केंद्र सरकार की बैठक के बाद ताबड़तोड़ मध्य प्रदेश ने एक फैसला लिया और भोपाल, इंदौर में पुलिस कमिश्नर प्रणाली की घोषणा बिना किसी पूर्व नियोजित योजना के जनता पर थोप दिया। 90/12/2021को अस्तित्व में आई पुलिस कमिश्नर प्रणाली को अब दो साल पूर्ण हो चुके है मगर जिस उद्देश्य से इसकी स्थापना की गई थी वह दूर-दूर तक नहीं दिखाई नहीं देता। शहर में अपराध पर अंकुश लगाने के उद्देश्य से अमल में आई पुलिस कमिश्नर प्रणाली मानव अधिकार विरोधी साबित हुई। पुलिस अधिकारियों की हिटलर शाही, अज्ञानी पुलिस तंत्र, स्टाफ अभाव, वर्क लोड और भ्रष्टाचार के अलावा इस प्रणाली के कोई परिणाम सामने नहीं आए।

दिनांक 09/12/2021को भोपाल और इंदौर में अस्तित्व में आई पुलिस कमिश्नर प्रणाली अब ग्वालियर और जबलपुर में पैर पसार रही है। मध्य प्रदेश सरकार भोपाल, इंदौर के बाद अब यहां पुलिस कमिश्नर प्रणाली लागू करने जा रही है। मगर क्या वास्तव में पुलिस कमिश्नर प्रणाली मध्य प्रदेश के संदर्भ में सफल है तो हम पाएंगे नही।
राजधानी भोपाल के संदर्भ में बात करें तो दो साल के इस लंबे अंतराल में पुलिस कमिश्नर प्रणाली आम जन सहित अन्य के लिए मानव अधिकार विरोधी और कानून के साथ खिलवाड़ के सिवा कुछ नहीं साबित हुई।

*पुलिस कमिश्नर प्रणाली में व्याप्त विसंगतियां:*
1.तात्कालिक शिवराज सरकार ने आनन फानन में 09/12/2021को दो राजपत्र के माध्यम से भोपाल और इंदौर में पुलिस कमिश्नर प्रणाली लागू की। पहला राजपत्र था भोपाल, इंदौर को महानगर घोषित करना जो केवल कागज में घोषित हुआ और दब गया।आज दिनांक तक भारत सरकार द्वारा अपने राजपत्र में भोपाल और इंदौर को महानगर घोषित नहीं किया है। आजतक इन जिलों को महानगर बनाने की वैधानिक प्रणाली अपनाई नहीं गई और आज भी भारत के राजपत्र में उसे महानगर घोषित नहीं करना मध्य प्रदेश सरकार की अनियमितता उजागर करती है।

2 भारतीय दण्ड प्रक्रिया 1973की धारा 20 और 21 की शक्तियों का उपयोग करके कलेक्टर और उसके अधीनस्थ कार्यपालिक दंडाधिकारी गण की शक्तियों को एक मात्र राजपत्र के माध्यम से पुलिस कमिश्नर, उपायुक्त, सहायक आयुक्त पुलिस को सौंप दिया जिसके अनुपालन में दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 107.108,116.110.151,122,144सहित मध्यप्रदेश राज्य सुरक्षा अधिनियम 1990के तहत जिन प्रतिबंधात्मक धाराओं के प्रकरणों के सुनवाई की शक्ति पुलिस को प्रदान की गई थी। पुलिस कमिश्नर प्रणाली के अस्तित्व में आने से सारी शक्ति पुलिस के आने के बाद शक्ति का दुरुपयोग दिखाई देने लगा, फलस्वरूप जनता के मानव अधिकार हनन की घटनाएं बढ़ी। सारा तंत्र पुलिस से पुलिस तक संक्षिप्त होने से पुलिस की तानाशाही रवैया उजागर हुआ है।
धारा 107/116का दुरुपयोग : पुलिस उपायुक्त और सहायक आयुक्त न्यायालयों में इस धारा की आड़ में जनमानस को प्रताड़ित किया जाता है। मामूली शिकायती आवेदन पत्र देने पर पुलिस शिकायत कर्ता पक्ष को ही पक्षकार बनाकर अंतिम बंध पत्र भरवा रही है। आम इंसान अपने ऊपर हुए हमले, प्रताड़ना का शिकार एक और फरियादी की हैसियत से आरोपी के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराता है तो पुलिस उसको ही धारा 107/116में धर देती है। नतीजतन फरियादी प्रताड़ना का शिकार होकर भी अपनी ही जमानत के लिए सहायक आयुक्त न्यायालयों में चक्कर काटकर धन खर्च कर रहा है। नतीजतन इन प्रकरणों की संख्या में भारी इजाफा हुआ है जो एसडीएम न्यायालय की तुलना में तीन से चार गुना ज्यादा है एक ओर बात एसडीएम न्यायालय से निकलने वाले सम्मन वारंट तामीली में पुलिस इतनी रुचि नहीं लेती थी जितना अब ले रही है। पुलिस अधिकारियों द्वारा अपनी समीक्षा बैठक में इनकी तामिली नहीं करने पर निचले स्तर के कर्मचारियों को दंडित किए जाते हैं। यही रुचि एसडीएम न्यायालय पद्धति पर ली होती तो इसको समाप्त नहीं किया जाता।

धारा 122 : दंड प्रक्रिया संहिता की इस धारा का अर्थ आमुख व्यक्ति द्वारा भरे गए अंतिम बंध पत्र की शर्त उल्लंघन पर कारवाई का प्रावधान है। शहर की अलग अलग सहायक आयुक्त तथा उपायुक्त पुलिस न्यायालयों में 6माह से तीन साल की अवधि के लिए 2वर्ष के अंतराल में लगभग एक हजार से अधिक लोगों को करावासित किया गया है। जबकि कार्यपालिक दंडाधिकारी प्रतिबंधात्मक धारा के प्रकरणों की अधिकारिता में न्यायिक मजिस्ट्रेट की भांति किसी की दंडित नहीं कर सकती लेकिन पुलिस कमिश्नर प्रणाली में बदस्तूर जारी है।

*अधिवक्ताओं के प्रति उदासीन व्यवहार*

पुलिस कमिश्नर प्रणाली को लागू हुए दो वर्ष गुजर गए इस अंतराल में भोपाल में किसी भी सहायक आयुक्त तथा उपायुक्त न्यायालय में अधिवक्ताओं के लिए न तो बैठने का स्थान आवंटित किया गया और न कार्य संपादित करने के लिए कोई स्थान उपलब्ध कराया। शहर के कई न्यायालयों में सड़कों पर वकील काम करते दिखाई दिए। मूलभूत सुविधाओं से वंचित व्यवस्था में वकीलों का मनोबल टूटा है जिसके कारण वकील इन न्यायालयों में नहीं दिखते और पुलिस के कथित कर्मचारी (न्यायालय संचालित करने वाले) भ्रष्ट आचरण, तानाशाही का प्रदर्शन करते दिखाई दिए।

सहायक आयुक्त तथा उपायुक्त न्यायालयों में पदस्थ कुछ अधीनस्थ कर्मचारी, अधिकारी भ्रष्ट आचरण के दोषी हैं। उनकी तानाशाही, अनियमित आचरण के कारण पुलिस कमिश्नर प्रणाली केवल प्रताड़ना और धन उगाही का माध्यम बन गई है।

*अवैधानिक प्रक्रिया है पुलिस कमिश्नर प्रणाली*
भारतीय दण्ड प्रक्रिया संहिता 1973 की धाराओं में कोई अमूल चूल परिवर्तन बिना विधानसभा में पारित हुए अमल में नहीं आता यदि सरकार किसी अध्यादेश को लाती है या राजपत्र से कोई व्यवस्था बनाती है तो 6माह में विधानसभा में अवश्य लाना चाहिए लेकिन 09/12/2021के राजपत्र को आज तक विधानसभा में नहीं पारित कराया गया कानून में परिवर्तन की प्रकिया जटिल है लेकिन सरकार ने राजपत्र से ही पुलिस कमिश्नर प्रणाली लागू कर दी है।

*जिला बदर कानून के अमल में कोताही*

मध्यप्रदेश राज्य सुरक्षा अधिनियम 1990की धारा 21के अनुसार सरकार द्वारा उक्त कानून में संशोधन केवल विधान सभा में ही किया जा सकता है। लेकिन सरकार ने बिना विधानसभा में संशोधन कराए पुलिस कमिश्नर को अधिनियम की धारा 5क ख, 6 ग सहित अन्य की शक्ति प्रदान की जिसके आधार पर वह जिला बदर कर रहे हैं जो कि न्याय संगत प्रतीत नहीं होता। इस संबंध में माननीय उच्च न्यायालय जबलपुर द्वारा पूर्व में कई बार मध्य प्रदेश सरकार की खिंचाई तक की है।

*विभिन्न न्यायालय विभिन्न नियम*

भोपाल की सहायक आयुक्त न्यायालयों में धारा 107/116 दंड प्रक्रिया संहिता के प्रकरणों में जमानत राशि और अवधि का उल्लेख भिन्न भिन्न है। जहां शाहजहानबाद संभाग में रुपए 25000/राशि और एक वर्ष की अवधि का उल्लेख है तो कोतवाली संभाग में रुपए 5000/की राशि और एक वर्ष की अवधि कारण बताओ नोटिस में उल्लेखित है वही हनुमान गंज संभाग में यह राशि रुपए 5000/की और अवधि 06माह है निशातपुरा में रुपए 5000/की राशि और एक वर्ष की अवधि कारण बताओ नोटिस में उल्लेखित होती है।लेकिन न्यायालय की प्रकिया भी भिन्न है जो केवल मानव अधिकार विरोधी कही जा सकती है।

*भ्रष्ट आचरण वाले कर्मचारी जमे है अंगद के पैर की भांति*

सहायक आयुक्त तथा उपायुक्त भिन्न भिन्न व्यवहार के पाए जा रहे हैं कहीं उग्र रूप वाले अधिकारी तो कई सौम्य और सभ्य भाषा का उपयोग कर लोगों को सकारात्मक ऊर्जा प्रदान करते हैं जिन सहायक आयुक्त तथा उपायुक्त उग्र रूप वाले हैं उनके अधीनस्थ भ्रष्ट और निरंकुश स्वभाव का प्रदर्शन कर रहे हैं वहीं शांत सौम्य और सभ्य भाषा का उपयोग करने वाले सहायक आयुक्त तथा उपायुक्त के अधीनस्थ भी जम कर चांदी कूट रहे हैं।
भोपाल में पुलिस कमिश्नर प्रणाली लागू हुए दो साल हुए इस अंतराल में अधिकतर सहायक आयुक्त तथा उपायुक्त न्यायालयों में जमे अधीनस्थ एक ही स्थान पर जमे होने से निरंकुश भ्रष्ट और अनियमित आचरण का प्रमाण भी दे रहे हैं।

न्यायालय भवन का अभाव

भोपाल में पुलिस कमिश्नर प्रणाली लागू हुए दो साल हुए इस अंतराल में अधिकतर सहायक आयुक्त तथा उपायुक्त न्यायालयों में भवन उपलब्ध नहीं होने से स्थान अभाव होकर कहीं सड़कों पर तो कहीं कमरों में संचालित हो रहे हैं ।जहां आमजन,वकीलों को खासी मशक्कत करनी पड़ती है और अपमानित भी होना पढ़ता है।
बहरहाल भोपाल के संदर्भ में कहा जाए तो पुलिस कमिश्नर प्रणाली हर मोर्चे पर विफल हो रही है जिससे असल अपराध पर रोक के स्थान पर प्रतिबंधात्मक धारा प्रकरणों की संख्या में बढ़ोत्तरी, धन उगाही और तानाशाही रह गया है।