अजय बोकिल
समझ नहीं आ रहा, कहां से शुरू करूं? उनकी ऐतिहासिक जिज्ञासाअों से या पर्यावरणीय चिंताअों से, उनके वन्य प्राणियों के प्रति अमिट लगाव से या फिर जनजातियों को मुख्‍य धारा में लाने को लेकर उनकी व्याकुलता से? जीवन की छोटी-छोटी घटनाअों के प्रति असीम कौतुहलता से अथवा जिंदगी के हर पल को भरपूर जीने की उनकी जिजीविषा से? क्योंकि इन सबको एक गुलदस्ते में समेटने का भावार्थ ही अनिल यादव होता है। करीब डेढ़ माह पहले मोबाइल पर उन्होंने मुझसे करीब एक घंटे तक बात की थी और देश प्रदेश में फैल रहे कोरोना से बचने के लिए कौन कौन-सी सावधानियां बरतनी चाहिए, इसको लेकर मुझे आगाह किया था। इतना सब कुछ होते हुए भी अनिलजी वही दुष्ट कोरोना आपको हमसे छीन ले गया। ये सच है, फिर भी यकीन नहीं होता।
अनिल यादव से मेरी मुलाकात करीब 25 साल पहले तब हुई, जब वो ‘नईदुनिया’ के प्रोफेसर काॅलोनी स्थित दफ्तर में हमारे मुखिया उमेश त्रिवेदीजी से मिलने आए थे। उन्हीं दिनो हमने साप्ताहिक ‘राज्य की नईदुनिया’ का प्रकाशन शुरू किया था। उसके पहले अ‍निलजी जनसत्ता में काफी‍ ‍िलखते रहे थे। उनकी पत्रकारिता से सामाजिक चिंताएं और जुझारूपन साफ झलकता था। उमेशजी से उनके बहुत ही पारिवारिक रिश्ते रहे हैं। बल्कि यह कहूं कि उमेशजी यानी अनिलजी के ‘भाई साहब’ उनके के फ्रेंड, फिलासफर और गाइड थे। प्राय: हर मामले में उमेशजी का निर्णय या सलाह अनिलजी के लिए अंतिम होती थी। इस बात का जिक्र वो मुझसे भी कई बार कर चुके थे कि मैं आज जो भी हूं, भाई साहब की वजह से हूं। चाहे वह पत्रकारिता हो, पारिव‍ारिक मामला हो या कुछ और।
पहली मुलाकात में ही मुझे और ‍अनिलजी को ऐसा लगा कि मानो यह विधिलिखित ही था। वो मुझसे उम्र में दो साल बड़े थे, लेकिन दोस्ती बराबरी की रखते थे। अक्सर कहते थे कि आपसे बौद्धिक चर्चा एं करने में बड़ा आनंद आता है। मेरी उनसे ज्यादातर चर्चाएं ऐतिहासिक, सामाजिक और पत्रका‍रीय मुददों पर ही होती थीं। कभी-कभार राजनीतिक और पारिवारिक विषयों पर भी बात होती।
अनिलजी पढ़ाई के दौरान छात्र नेता भी रहे। लेकिन राजनीति उनके स्वभाव से मेल नहीं खाती थी। मूल रूप से अनिलजी सिर से लेकर पैर तक एक खांटी पत्रकार थे। पत्रकारिता ही उनकी जिंदंगी थी, पत्रकारिता ही पेशा था और पत्रकारिता ही पैशन था। सबसे खास बात यह थी कि गंजबासौदा जैसे छोटे से शहर में रहकर भी उन्होंने अपनी पत्रकारिता का डंका पूरे देश में बजाया। वो उन बिरले पत्रकारों में थे, जिनकी निगाह बहुत पैनी और चौतरफा रहती है। जिनके भीतर एक संवेदनशील मन हमेशा जीता रहता है। चाहे प्रकृति हो या समाज हर अन्याय को लेकर एक स्वाभाविक गुस्सा और बेचैनी कायम रहती है। सच्चाई का झंडा ऊंचा रखने की बेताबी हमेशा जोर मारती रहती है।
रस्मी खबरों को दरकिनार करें तो अनिलजी का मन ‘आॅफ बीट’ खबरो में ज्यादा रमता था। लिहाजा आॅफ बीट खबरों के वो आॅफ बीट पत्रकार थे। अपनी अनोखी दृष्टि के चलते वो अचेतन में भी एक अलग चैतन्य वो हमेशा खोज लेते थे। कई बार मुझे लगता कि अनिलजी को एक पर्यावरणशास्त्री अथवा समाज विज्ञानी होना चाहिए था। एक बार बासौदा के रमतुल्लों ( तुरही की तरह बड़ा वाद्य) पर उन्होने मुझसे लंबी और रोचक चर्चा की थी। चि‍िड़यां, चींटियां, टिटहरी, आकाश की तरह फैला बूढ़ा बरगद और उसका अपना पर्यावरणीय संसार जैसे अनेक विषयों पर उनकी बारीक निगाह जाती और एक अनूठे आलेख के रूप में अखबार में नमूदार होती। प्रदेश में शेरों की संख्या, उनका संवर्द्धन और अवैध‍ शिकार से लेकर गाडि़ये लुहारों की बेहाल जिंदगी में गहराई से झांकने और उसे बेहतर बनाने का अपने तईं उपक्रम अनिल यादव जैसा पत्रकार ही कर सकता था। इसी तरह उपेक्षित पारदी समुदाय पर उन्होने गहरा शोध किया था। मुख्य धारा में जीता जो समाज जिन दुर्लक्षित और घुमक्कड़ जनजातियों के बारे में सोचना भी गवारा न करता हो, उनका अनिलजी न सिर्फ विश्वास अर्जित किया, बल्कि उनकी समस्या को समाज के सामने पूरी दमदारी से रखा। मुझे कई बार आश्चर्य होता था कि अनिलजी इतना विविधता भरा काम कैसे कर लेते हैं? वो भी बिना थके। बिना रूके। इसके लिए लंबी यात्राएं करने में भी उन्हें संकोच नहीं होता था। कुछ उसी तरह कि पेड़ पर लटके छत्ते से मधु निकालने में लकड़हारे को कोई संकोच या डर नही लगता। क्योंकि उसका साध्य मधु होता है, जिसके चाहे ‍िजतना जोखिम क्यों न उठाना पड़े।
ढाई दशकों के साथ में मैंने अनिलजी से काफी कुछ सीखा। पहला ककहरा ये था कि चाहे कितनी मुश्किल या परेशानियां क्यों न हों, हरदम मुस्कुराते रहो। जिज्ञासाअोंपर पूर्ण विराम कभी न लगने दो। उनका फोन जब भी आता, तब वो पहले मुस्कुराकर यही पूछते थे कि आपको डिस्टर्ब तो नहीं कर रहा हूं। अनेक बार लंबी ज्ञानवर्द्धक चर्चा में भी दो-चार बार उनकी खिलखिलाहट न सुनी तो अनिल जी से बात ही क्या हुई?
बीते कुछ सालों में कलम से ज्यादा उन्होंने कैमरे के साथ खेलना शुरू किया था। वो इसमें अपनी रचनात्मक पत्रकारिता का नया आयाम महसूस करते थे। इस दृष्टि से उनकी फोटोग्राफर राजा छारी के साथ राम-हनुमान सी जोड़ी थी। जब वो पहली बार ड्रोन कैमरा लेकर आए थे, तो बाल सुलभ कौतुहल के साथ उन्होंने हमे वह दिखाया और समझाया था। ड्रोन कैमरा हवा में उड़कर जमीन पर तस्वीरों को कैद करता है। अनिलजी जमीन पर रहकर सरोकारों को कैद करते थे, वो भी अलग अंदाज में। उनकी हसरतों के बास्केट में अभी कई विषय और मुद्दे भरे पड़े थे। बहुत कुछ करने की तमन्ना थी उनकी। उम्र के कंबल को मानो उन्होंने अपने से दूर ही रखा था। अस्पताल में कोरोना से लड़ते हुए भी उनकी यही जिंदादिली तब तक कायम रही, जब तक कि कोरोना ने उन्हे पूरी तरह जकड़ नहीं लिया। अभी भी लगता है कि अनिलजी का फोन आने ही वाला है। क्योंकि हर पल जिंदादिली और अनथक सक्रियता का दूसरा नाम है ‍अनिल यादव। इसी जज्बे के साथ आप हमेशा हमारे साथ रहेंगे अनिलजी…!

( ‘सुबह सवेरे’ में 5 अक्टूबर 2020 को प्रकाशित )