समानता के अधिकार का उल्लंघन करती भारतीय नारी
आजकल वैसे तो मैं महिला सशक्तिकरण से संबंधित कई आलेख लिख रही हूँ और इस मुहिम के तहत कई ऐसी महिला विभूतियों को पाठकों के समक्ष ला रही हूँ जिनकी विलक्षण प्रतिभाओं, कठिन संघर्ष या असाधारण कार्यों की जानकारी समाज को नहीं है। और ऐसी सशक्त महिलाओं की गाथाओं से निश्चित रूप से बहुतों को प्रेरणा मिल रही है और मिलती रहेगी। खासतौर पर उन महिलाओं को जिनका जिंदगी की जद्दोजहद के दरमियान किसी बड़े रोड़े के आने से मनोबल टूट गया हो। खैर नारी शक्ति का रूप है वह अपने अनुभवों से भी मजबूत होती जाती है। और जब नारी मजबूत होती है तो नारी पुरुष में समानता परिलक्षित होती है और समाज, देश, दुनिया विकास की ओर अग्रसर होता जाता है। वैदिक काल में नारी श्रद्धा और विकास का प्रतीक समझी जाती थी कालांतर में नारी की स्थिति निरंतर गिरती गयी। उसे पुरुष की सहभागिनी नहीं बल्कि दासी समझा जाता था, वह भोग विलास का साधन रह गयी थी। धीरे-धीरे उसे अनेकों रूपों में प्रताड़ित किया जाने लगा। दहेज की मांग, आए दिन दहेज की मांग पर नवविवाहिता के साथ दुर्व्यवहार, हत्या, जिंदा जलाना यह सब आम बात रही है।बाल विवाह, सती प्रथा भी पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ है, दूर ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी फल-फूल रहा है। शिक्षा के अधिकार से वंचित रखना अब काफी हद तक कम हो गया है और है तो इसके जिम्मेदार माता-पिता व परिवार भी हैं। इस प्रकार नारी का वास्तविक स्थान घर की चार दीवारी तक सीमित था और उसके स्वतंत्र व्यक्तित्व को कभी महत्ता नहीं दी गयी। यही कारण है कि आज जब लिंग समानता को लेकर निरंतर प्रयास किया जा रहा है पढ़े लिखे समाज में नारी अब हीन भावना की शिकार नहीं। स्वतंत्र भारत में भारतीय जनमानस के मन में क्रान्तिकारी बदलाव देखने को मिले हैं। संविधान में नारी को पुरुष के बराबर स्थान मिला है। वह हर क्षेत्र में अपनी प्रतिभाओं का परचम लहरा रहीं हैं। लेकिन अब मुझे यह समझ नहीं आता कि नारी इस समानता को सम्भालने में लड़खड़ा क्यों रहीं हैं। कहने का मतलब साधारण कार्यों को भी बढ़ा-चढ़ा कर पेश करना और सहानुभूति बटोरना। नारी अगर हर बड़े से बड़े पद पर आसीन है तो सहानुभूति कहाँ से आ गई। नारी को अलग से नमन क्यों? एक पोस्ट आजकल वाइरल हो रहा है कि “इतनी भीषण गर्मी में रसोई में खड़े होकर स्वादिष्ट खाना बनाने वाली माँओं, बहनों, गृहणियों को सादर नमन।” और इतनी भीषण गर्मी में बाहर लू के थपेड़े सहते, भांति भांति के लोगों का सामना करते मेहनत की रोटी कमाने वाले पुरुषों/महिलाओं को नमन नहीं करना चाहिए हमें? खाना बनाने, गृहस्थी संभाल के हम किसी पर एहसान नहीं कर रहे, ठीक उसी प्रकार जैसे घर के पुरुष रोटी कमा के कोई एहसान नहीं कर रहे। ये सब तो परिवार के प्रति जिम्मेदारियां होती हैं। पहले रुढ़िवादी मानसिकता के कारण कार्य बंटे हुए थे, नारी हीन भावना से ग्रसित हुआ करती थी पर आज तो उतना दमन देखने को नहीं मिलता फिर भी हम स्वयं सहानुभूति बटोरकर आखिर खुद को हम कमजोर साबित कर रहे हैं। क्या हमें सहानुभूति बटोरने की आदत पड़ चुकी है? दूसरी तरफ स्वतंत्रता व समानता का सहारा लेकर संवैधानिक अधिकारों का गलत इस्तेमाल कर रहीं हैं स्त्रियां, ढेरों ऐसे मामले मौजूद हैं जहां महिलाएं बड़े बड़े घिनौने शर्मनाक अपराध कर रहे हैं और नारी जाति पर कलंक बन रहीं हैं। आजकल लेटेस्ट ट्रेंड्स में सोशल मीडिया में महिलाएं न जाने कितने घृणित कार्यों में लिप्त हैं, रील्स के नाम पर जो अश्लीलता परोसी जा रही है, कई धंधे चल रहे हैं उन्हें देखकर तो ऐसा लगता है कि महिलाएं अब अपनी फजीहत खुद कर रहीं हैं? उनके साथ ढेरों घटनायें उनकी अपनी बदमाशियों के कारण हो रहे हैं। समानता के अधिकारों, नारी उत्थान के अधिकारों का निरंतर दुरुपयोग सामने आ रहा है ऐसे में समाज की वर्तमान हालत की जिम्मेदार क्या नारी स्वयं नहीं हैं?
शशि दीप ©✍
विचारक/ द्विभाषी लेखिका
मुंबई
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