विलक्षण प्रतिभा की धनी सरस्वती फाल्के महिला सशक्तिकरण के लिए एक आदर्श!

“कहते हैं भगवान के घर में देर है पर अंधेर नहीं” इस कहावत को पिछले दिनों मैंने बेहद करीब से अनुभूत किया। मुझे आमंत्रण आया कि हमारे भारतीय सिनेमा के जन्मदाता दादा साहेब फाल्के जिन्हें सारी दुनिया जानती है उनकी पत्नी श्रीमति सरस्वती बाई फाल्के जी की 80 वीं पुण्यतिथि के अवसर पर एक श्रद्धांजलि व सम्मान समारोह रखा गया है जिसमें देश भर के करीब सौ ऐसे विभूतियों को आमंत्रित किया जा रहा है जो अपने विभिन्न क्षेत्रों में अपने उत्कृष्ट कार्यों के लिए प्रेरणा स्रोत बने हुए हैं। खैर ये तो हुई कार्यक्रम की भूमिका पर ये आलेख उस महिला को श्रद्धांजलि है जिनके नाम को इतने सालों तक याद नहीं किया गया जिसने दादा साहेब फाल्के को फिल्म इंडस्ट्री की नींव रखने के लिए उस ज़माने में अपने गहने बेचकर 20,000 रुपये दिए थे, वो महिला जो अपने पति के उद्देश्य को समझी, उसके सपने को साकार करने में सिर्फ एक पत्नी की भूमिका अदा नहीं की बल्कि उन्हें उनके कार्य क्षेत्र में भी पूरी मदद करती थी। वे भारतीय फिल्म इंडस्ट्री की पहली महिला टेक्नीशियन थी। जिसने अपने पति दादा साहेब फाल्के के निर्देशन में फिल्म डेवलपिंग, मिक्सिंग और फिल्म पर केमिकल कैसे इस्तेमाल करना है, यह सब सीखा, एडिटिंग सीखा और दोनों मिलकर इतनी कड़ी मेहनत किये कि भारत की पहली हिन्दी फीचर फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ की एडिटिंग सरस्वती बाई फाल्के ने ही की थी। वे उस ज़माने में जब महिलाएं ज्यादातर चार दीवारी से बाहर नहीं जाती थी, पितृ सत्ता समाज में महिलाएं अपने घर की जिम्मेदारियों से अलग कुछ और नहीं सोच पाती थीं पर सरस्वती बाई फाल्के एक असाधारण महिला थी, जिसे आजकल सशक्त नारी कहा जाता है। वे अपनी प्राथमिकताओं और जिम्मेदारियों के बावजूद अपने पति के बड़े उदेश्य को पूरा करने में अहम भूमिका निभाई। सरस्वती बाई ने फिल्म निर्माण के क्षेत्र में पोस्टर बनाने से लेकर फिल्म की एडिटिंग तक, हर जगह दादासाहेब फाल्के की संगिनी रहीं। उसकी दिलचस्पी देख फाल्के ने उन्हें कैमरा चलाने से लेकर एडिटिंग के लिए शॉट्स हटाने और लगाने तक सभी कुछ सिखाया। सरस्वती जी फिल्म सेट पर चिलचिलाती दोपहरी में घंटों सफेद रंग की चादर लेकर खड़ी रहती थी। यह सफेद चादर उस समय लाइट रिफ्लेक्टर का काम करती थी। आज भारतीय फिल्म जगत की पहली फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ को बनाने वाले दादा साहब फाल्के को तो बच्चा-बच्चा जानता है लेकिन उनकी पत्नी सरस्वती बाई फाल्के को विरले ही लोग जानते होंगे। इसीलिए पहली बार उस महान नारी शक्ति को नमन करने के लिए उनके सम्मान में विभिन्न सम्मानीय विभूतियों को सम्मान के लिए आमंत्रित किया गया। निसंदेह ईश्वर ने उस असाधारण महिला के कर्मों को दफन नहीं होने दिया। और उसी ईश्वर की कृपा से मेरा यह लेखन भी सम्भव हो पा रहा है। उनके बिना दादा साहब फाल्के की पहली फिल्म बन पाना असम्भव था। भारतीय सिनेमा की पहली फिल्म का निर्माण सरस्वती बाई फाल्के के समर्पण, उत्साह, दृढ़ निश्चय और असाधारण सहयोग का नतीजा है। यही वजह है कि रिकॉर्ड में सरस्वती बाई फाल्के का नाम भारतीय फिल्म इंडस्ट्री की पहली महिला टेक्नीशियन के रूप में दर्ज है। 80 साल बाद कैफ अवार्ड्स आयोजन समिति के संस्थापक व संचालक रविन्द्र अरोरा रवि के द्वारा ‘बैकबोन अवार्ड’ समारोह का आयोजन किया जाना उस महान नारी के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि है। समाज सरस्वती बाई फाल्के का ऋणी है। इसलिए ऐसे गरिमामय समारोह उनके प्रति असली कृतज्ञता है। इस अनुकरणीय पहल के लिए रवीन्द्र अरोरा जी को कोटि कोटि नमन। किसी के अच्छे काम जो संचित निधि के रूप में दुनिया में विद्यमान रहता है वो कभी बेकार नहीं जाता, ऊपर वाले के पास अनेकों तरीके हैं दुनिया के सामने प्रस्तुत करने के तभी तो ईश्वरीय कृपा को समझना सबके वश की बात नहीं।

शशि दीप ©✍
विचारक/ द्विभाषी लेखिका
मुंबई
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