भारतीय मीडिया में महिलाओं के वर्चस्व को नकारा नहीं जा सकता है:शशि दीप मुंबई
आज से कुछ बरस पहले तक मीडिया में अँगुलियों पर गिनी जाने वाली महिलाएँ थीं। लेकिन आज स्थिति भिन्न है। आज मीडिया-जगत का ऐसा कोई कोना नहीं जहाँ महिलाएँ आत्मविश्वास और दक्षता से मोर्चा नहीं संभाल रही हो। विगत वर्षों में प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और इंटरनेट पत्रकारिता की दुनिया में महिला स्वर प्रखरता से उभरें है।
प्रेस क्लब ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स की राष्ट्रीय संगठन महासचिव श्रीमती शशि दीप मुंबई महाराष्ट्र ने अंतर्राष्ट्रीय प्रेस स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर देश की महिला पत्रकारों को संबोधित करते हुए कहा कि पत्रकारिता जगत में महिला शोषण की बातें भी समय-समय पर उठती आई है। ऐसे में पत्रकरिता करने में कितनी चुनौती है इसे समझने में देर नहीं की जा सकती।
इस जगमगाहट का एक अहम कारण यह है कि पत्रकारिता के लिए जिस वांछित संवेदनशीलता की जरूरत होती है वह महिलाओं में नैसर्गिक रूप से पाई जाती है। पत्रकारिता में एक विशिष्ट किस्म की संवेदनशीलता की आवश्यकता होती है और समानांतर रूप से कुशलतापूर्वक अभिव्यक्त करने की भी। संवाद और संवेदना के सुनियोजित सम्मिश्रण का नाम ही सुन्दर पत्रकारिता है। महिलाओं में संवाद के स्तर पर स्वयं को अभिव्यक्त करने का गुण भी पुरुषों की तुलना में अधिक बेहतर होता है। यही वजह रही है कि मीडिया में महिलाओं का गरिमामयी वर्चस्व बढ़ा है।
संवेदना के स्तर पर जब तक वंचितों की आह, पुकार और जरुरत एक पत्रकार को विचलित नहीं करती उसकी लेखनी में गहनता नहीं आ सकती। लेकिन महज संवेदनशील होकर पत्रकारिता नहीं की जा सकती क्योंकि इससे भी अधिक अहम है उस आह या पुकार को दृढ़तापूर्वक एक मंच प्रदान करना। यहाँ जिस सुयोग्य संतुलन की दरकार है वह भी नि:संदेह महिलाओं में निहित है। अपवाद संभव है, लेकिन मोटे तौर पर यह एक सच है जिसे वैज्ञानिक भी प्रमाणित कर चुके हैं।
पत्रकार की तीसरी महत्वपूर्ण योग्यता गहन अवलोकन क्षमता और पैनी दृष्टि कही जाती है। यहाँ भी महिलाओं का पलड़ा भारी है। जिस बारीकी से वह बाल की खाल निकाल सकती है वह सिर्फ उसी के बस की बात है।
पिछले कुछ सालों में मीडिया में महिलाओं ने एक और भ्रम को सिरे से खारिज किया है। या कहें कि लगभग चटका दिया है, वह यह कि पत्रकार होने के लिए यह कतई जरूरी नहीं कि लड़कों की तरह कपड़े पहने जाएँ। या बस रूखी-सूखी लड़कियाँ ही पत्रकार हो सकती है। अपने नारीत्व का सम्मान करते हुए और शालीनता कायम रखते हुए भी सशक्त पत्रकारिता की जा सकती है, यह सच भी इसी दौर की पत्रकारिता में दिखाई दिया है।
इसी से जुड़ी समाज की एक और गलतफहमी कि सज-धज कर ‘अन्याय’ तरीकों से आगे बढ़ी होगी। किन्तु वास्तविकता कुछ और है अगर प्रतिभा की चमक नहीं होगी तो ‘गलत’ सीढि़यों से मिली मंजिल मुँह के बल ला पटकती है। सौन्दर्य अवसर तो दिला सकता है मगर स्थायित्व और सफलता नहीं। कार्य-कुशलता और मेहनत के बल पर मिली सफलता चाहे धीमें मिले पर चेहरे से नजर आती है और भिन्न तरीकों से मिली सफलता आरंभ में चमकती है लेकिन थोड़े ही समय बाद चेहरा छुपाने को बाध्य करती है।
हालाँकि इस सच से इंकार नहीं किया जा सकता कि मीडिया में यह ‘सब-कुछ’ होता है। अच्छी खबर यह है कि हिन्दी बहुल क्षेत्रों में अभी इस ‘फ्लू’ का प्रकोप उतना नहीं फैला है जितना महानगरों में। लेकिन उसके लिए भी सीधे तौर पर ना तो महिलाएँ जिम्मेदार कही जा सकती है ना मीडिया। परिस्थिति, संस्कार और मूल्य बदले हैं। जरूरतें बदली हैं। सोच और नजरिए में फर्क आया है। महिला स्वतंत्रता आंदोलनों ने समानता से आगे यौन-शुचिता पर प्रश्न खड़े करने शुरू कर दिए हैं।
महानगरों में संस्कृति को ‘विकृति’ में परिणत करने के हमले निरंतरता से जारी है। उस पर से सफलता प्राप्ति के लिए इंतजार करना और सही-गलत के झमेले में पड़ना आधुनिक कन्याओं को नागवार गुजरता है। वह भी तब जब वह अपने से कमतर को तेजी से आगे बढ़ते हुए देखती है। ऐसे में अपने पास आसानी से उपलब्ध रास्तों को आजमाने में उसे कोई बुराई नजर नहीं आती। यहाँ इसे फिर स्पष्ट करते चलें कि यह व्यग्रता उन्हीं ‘चंद’ कन्याओं में पाई जाती है जिन्हें अपनी प्रतिभा, लेखनी और मेहनत पर विश्वास नहीं।
बावजूद इसके कि मीडिया-जगत में महिलाओं का शोषण विभिन्न स्तरों पर होता है, मेरा प्रबल आग्रह है कि ऐसा तब ही है जब महिलाओं की इसमें मौन स्वीकृति शामिल हो। अन्यथा जब तक व्यक्ति खुद ना चाहे उसे ना तो शोषित किया जा सकता है ना प्रताडि़त। फिर यह जुमला पढ़ते चलें कि अपवाद हर जगह हैं, होते हैं, होने चाहिए क्योंकि सही-गलत का अंतर हर युग में था और रहेगा। इस ‘सही’ को पहचानने के लिए अपवाद जरूरी है।
मीडिया में आपसे पहले आपकी प्रतिभा और दक्षता खुद बोलती है। यहाँ छल, छद्म, झूठ और मक्कारी आपको ले डूबते हैं। मैं मानती हूँ कि महिलाओं के लिए यह सुरक्षित क्षेत्र है बस इसे सम्मानजनक भी बना रहने दें,यह मीडिया की ही जिम्मेदारी है। और यह मीडिया क्या है? हम ही तो हैं। हम से ही तो हैं। इसके मूल्य बचे रहें, दुआ कीजिए।