पंकज शुक्ला, 9893699941
मप्र में इनदिनों तमाम तरह के विरोध के स्वर गुंजायमान हैं। जहां एक ओर सवर्ण समाज एससी/एसटी कानून के खिलाफ प्रदर्शन कर रहा है तो दूसरी तरफ आदिवासी समाज एकजुट हो कर अपनी ताकत दिखाने में जुटा है। जन आदिवासी युवा शक्ति (जयस) दावा कर रहा है कि वह राज्य में आदिवासी सरकार बनाने के लिए साल के अंत में होने वाला विधानसभा चुनाव लड़ेगा। जिस कांग्रेस ने अपने वरिष्ठ नेताओं में किसी एक को मुख्यमंत्री का चेहरा न बना कर विधानसभा चुनाव में उतरने का फैसला किया है क्या वह जयस की मांग के साथ खड़ी होगी? यह सवाल भाजपा के लिए भी उतना ही बड़ा है कि वह जयस की मांग तथा प्रभाव से कैसे निपटेगी क्योंकि 47 आरक्षित सीटों में से 32 सीटों पर भाजपा और 15 सीटों पर कांग्रेस का कब्जा है। इसके अलावा प्रदेश में 33 सीटें ऐसी हैं जो आदिवासियों के लिए आरक्षित तो नहीं है, लेकिन उन पर आदिवासियों का वोट निर्णायक होता है। प्रदेश में लोकसभा की 29 में से 6 सीटें आदिवासियों के लिए आरक्षित है। इनमें से 5 सीटों पर भाजपा और 1 सीट पर कांग्रेस काबिज है। 6 के अलावा 4 अन्य सीटों पर आदिवासी वोट प्रतिशत फेरबदल करने में सक्षम है।
विधानसभा चुनाव 2018 के पहले मप्र की राजनीति में इनदिनों एक नई तस्वीर में रंग भरे जा रहे हैं। ये रंग वास्तव में आदिवासी एकता के नारे के साथ उभरे हैं। मप्र की कुल जनसंख्या की लगभग 20 प्रतिशत आबादी आदिवासी है। सामाजिक और मानव वैज्ञानिक विविधताओं के कारण यह आबादी कभी व्यापक राजनीतिक दबाव समूह की तरह पेश नहीं हुई है। मध्यप्रदेश में भौगोलिक विभिन्नता की तरह ही आदिवासियों के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक अवस्थाएं भी अलग-अलग हैं। मालवा-निमाड़ में अधिक राजनीतिक चेतन्यता दिखाई देती है तो सहरिया और कोरकू आदिवासियों में ये सजगता अपेक्षाकृत रूप से कम है। समय-समय पर प्रदेश की राजनीति में आदिवासी नेतृत्व तेजी से उभरता है और फिर अचानक गायब हो जाता है। फिर भी जमुना देवी, दिलीप सिंह भूरिया, कांतिलाल भूरिया, फग्गन सिंह कुलस्ते और अब बाला बच्चन, कुंवर विजय शाह, अंतरसिंह आर्य, ओमप्रकाश धुर्वे, रंजना बघेल, निर्मला भूरिया, उमंग सिंघार जैसे नेताओं ने आदिवासी राजनीति को धार दी है।
आदिवासी वोट बैंक मूलरूप से कांग्रेस के साथ रहा है। कुछ वर्षों पहले ये भाजपा के पास आया। यही कारण है कि 47 आरक्षित सीटों में से 32 सीटों पर भाजपा और 15 सीटों पर कांग्रेस का कब्जा है। अब जयस इस वर्चस्व को तोड़ने की तैयारी में है। 2013 में मध्यप्रदेश के बडवानी जिले में पहली फेसबुक आदिवासी पंचायत बुलाई गई, जिसमें करीब ढाई सौ लोग शामिल हुए। इस पंचायत के बाद आदिवासी अधिकारों के लिए इस संगठन ने आकार लिया। बीते वर्ष महाविद्यालयों के छात्र संघ चुनावों में एक तरफा जीत हासिल कर जयस ने अचानक ध्यान आकृष्ट किया था। जयस के संस्थापक हीरालाल अलावा ने दावा किया कि छह वर्षों में इसके मध्य प्रदेश, झारखंड, राजस्थान,छत्तीसगढ़ और ओडिशा समेत 10 राज्यों में करीब 15 लाख सदस्य बने हैं। जयस का कहना है कि 47 सांसद आदिवासी आबादी का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं तथा विधानसभाओं में करीब 600 आदिवासी विधायक हैं लेकिन वे अपने लोगों के मुद्दों को उठाने में अप्रभावी रहे हैं। आदिवासी सांसद और विधायक अपनी पार्टी का प्रचार करने में व्यस्त हैं। यही कारण है कि ‘अबकी बार आदिवासी सरकार’के नारे के साथ जयस 47 आरक्षित तथा 33 अन्य सीटों पर चुनाव लड़ने का फैसला किया है। जयस आदिवासी इलाकों में भयंकर भूखमरी, कुपोषण,पलायन, बिजली, बेराजगारी, सड़कें और बदतर स्वास्थ्य सेवाओं जैसे मुद्दों को उठा रहा है। जयस आदिवासियों का पारंपरिक नेतृत्व करने वाले नेताओं पर परिवारवाद का आरोप लगा रहे हैं। दावा किया जा रहा है कि समाज के सक्रिय युवा जयस के जरिए विधानसभा और लोकसभा जैसे नीति निर्माता संस्थानों में पहुंचकर आदिवासियों के अधिकारों की बात उठाएंगे। दिग्गज नेताओं की सभाओं के समानांतर जयस के सम्मेलनों के कारण अब प्रदेश में आदिवासी राजनीति नई करवट लेती प्रतीत हो रही है। भाजपा-कांग्रेस के सूत्रधारों के लिए यह समझना आवश्यक हो गया है कि आदिवासी युवाओं की यह एकता समीकरणों की राजनीति को नए गुणा-भाग करने को विवश करेगी।