होली त्यौहार नहीं सत्य का प्रतीक है
हमारे देश में होली प्रमुख त्योहारों में से एक है जो ठीक शीत ऋतु की विदाई और ग्रीष्म ऋतु के आगमन के दिनों में फाल्गुन की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। इस त्यौहार की खास बात यह है कि इसमें प्रकृति प्रदत्त सात रंगों को मानवीय संवेदना से संबद्ध कर उन्हें आपसी प्रेम, एकता, भाईचारा स्थापित करने के लिए मिलन और हर्षोल्लास का माध्यम बनाया गया है। और पौराणिक कथाओं के अनुसार परंपरागत रूप से होली की पूर्व संध्या पर होलिका दहन का आयोजन किया जाता है ताकि अधर्म पर धर्म की जीत, असत्य पर सत्य की जीत, दुर्भावना पर सद्भावना की जीत को मानव पटल पर ठीक ढंग से प्रेषित की जा सके और दुनिया में अच्छाई फैले द्वेष व षड्यंत्रकारी विचारधाराओं का विनाश हो।
यह तो हुई परंपरा की बात लेकिन रंगों से जुड़ा होने की वजह से इस त्योहार के कुछ दिन पहले से ही वातावरण अत्यंत मनोहर हो जाता है। बच्चे, बूढ़े, जवान सभी उत्साहित दिखाई देते हैं। जिनके जीवन में तकलीफों का सिलसिला थमने का नाम नहीं लेता उन्हें उत्साह के वातावरण में आशा की किरण दिखाई देती है। उस दिन की ही बात है जब होली को दो दिन बाकी था तीन चार बच्चियां परिसर में खेल रहीं थीं अचानक मुझे देखते ही पूछने लगीं आंटी आप होली खेलने आओगे ना? उनकी निरीहता और भोलेपन के साथ पूछे इस सवाल के जवाब में मैंने कहा हाँ! जरूर आऊंगी हम साथ होली खेलेंगे, मिठाई खाएंगे और एक बड़ी फैमिली की तरह रहेंगे। होली को भला अकेले कौन मनाता है? बच्चे मासूमियत से मुस्कराने लगे। उस पल ऐसा एहसास हुआ जैसे बच्चे ही सबको मिलाने की कोशिश कर रहे हैं। यही कोशिश सभी की होनी चाहिए। यह तो हर्षोल्लास, परस्पर मिलन व एकता का प्रतीक है। इस दिन मैंने एक और बात देखी है कि होली त्योहार के बहाने जब सभी एक दूसरे से रूबरू होते हैं तो लोग कितनी भी पुरानी दुश्मनी हो, आपसी वैमनस्य हो सब भूल जाते हैं क्योंकि पहली बात तो जब दोस्त -दुश्मन, अमीर-गरीब किसी भी जाति धर्म संप्रदाय के लोग एक कतार में खड़े दिखेंगे तो आप भेद कर ही नहीं पाएंगे। सबको रंग लगाना ही होगा। मैंने स्वयं अनुभूत किया है कई बार की होली में जब होलिका दहन के पश्चात या धुली वंदन के दरम्यान किसी ऐसे किसी से सामना हो जाए जो आपके प्रति द्वेष रखता हो और उनकी नकारात्मक ऊर्जा के कारण साधारण दिनों में उनसे दूरी बना रखे हों, होली के दिन उत्साह के वातावरण में प्रेम भाव उमड़ पड़ता है और अधिकतर कई पुरानी रंजिशें खत्म होकर व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक स्तर पर इंसानी रिश्तों का नवीनीकरण हो जाता है। और खुशियां लौटती है। इस प्रकार किसी भी प्रकार के भेद को कम कर चहुं ओर प्रेम की ज्योति प्रज्वलित करता है। निसंदेह यह त्योहार हमारी संस्कृतिक धरोहर है। और इसका पूर्ण निर्वाह करना हमारा दायित्व है। हमें जागरूक नागरिक होने के नाते देश समाज में उन तत्वों का मिल जुलकर विरोध करना चाहिए जो इस अवसर का लाभ उठाकर अश्लीलता फैलाते है और विशुद्ध रंगों की जगह कीचड़, कालिख या रसायन का प्रयोग करते हैं और मदिरापान करके गंदी हरकतें करते हैं। मूल परंपरा की पवित्रता को बनाए रखना हम सभी की नैतिक जिम्मेदारी है।
शशि दीप ©✍
विचारक/ द्विभाषी लेखिका
मुंबई
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