@सैयद ख़ालिद कैस
भारत में लोकतन्त्र के चौथा स्तंभ के नाम से प्रचारित पत्रकारिता की स्थिति दिन ब दिन चिंतनीय होती जा रही है । पत्रकारो पर कार्य के दौरान हो रहे हमलो, हत्या , हत्या के प्रयास की बढ़ती घटनाओ ने पत्रकारो के मध्य भय व आतंक का माहौल निर्मित कर रखा है । केंद्र व राज्य सरकारों के उदासीन व्यवहार का नतीजा है कि संपूर्ण पत्रकार समाज अपने आपको असुरक्षित मेहसूस कर रहा है । भारत में पत्रकारों पर हमलों पर हुए एक अध्ययन में पता चला है कि वर्ष 2014 के बाद से लगभग 200 पत्रकारों पर गंभीर हमले कारित हुए और वहीं 40 मामले हत्याओं के दर्ज किये गए है। इन 40 मौतों में से 21 मामलों में सीधे ऐसे मामले सामने आए जिनमे पत्रकारों पर उनके कार्यस्थलों पर कार्य करने के दौरान घटित हुए । अर्थात पत्रकारोँ की हत्याओं के 40 मामलों में 21 पत्रकारोँ को ऐसे समय मारा गया जब वह अपना कार्य कर रहे थे और उस समय वह कार्यस्थल पर मौजूद थे । जो सोची समझी साजिश के सिवा कुछ नही थे । अध्ययन में यह भी पता चला कि वर्ष 2010 में पत्रकारों की हत्या के मामलों में केवल तीन मामलो में ही हत्यारों को सजाएँ हुई हैं।शेष अन्य में या तो हत्यारे अज्ञात थे या पकड़ से दूर थे , या उनको राजनैतिक संरक्षण प्राप्त होने के कारण पुलिस ने पकड़ा तक नही या जो न्यायलय में दोषी साबित नही हुए ।
रिपोर्ट में कहा गया है कि हमले कथित तौर पर सरकारी एजेंसियों, सुरक्षा बलों, राजनीतिक दलों के सदस्यों, धार्मिक संप्रदायों, छात्र समूहों, आपराधिक गिरोहों और स्थानीय माफियाओं द्वारा किए गए थे। तीनों दोषी पत्रकार ज्योतिर्मय डे, राजेश मिश्रा और तरुण आचार्य के मामलों में हुए। अध्ययन में कहा गया है कि अन्य सभी मामलों में, एफआईआर दर्ज की गई हैं या परीक्षण शुरू हो गए हैं लेकिन “हम कहीं भी न्याय के पास नहीं हैं”।
शोध को नागरिकता अधिनियम में संशोधन के विरोध में प्रकाशित किया गया था, जिसके दौरान इस तरह के और हमले हुए। अध्ययन में कहा गया है कि इन विरोध प्रदर्शनों के दौरान, कम से कम चार राज्यों में पत्रकारों को “हिरासत में लिया गया, हमला किया गया, उनके कैमरा उपकरण छीन लिए गए और यहां तक कि पड़ोसी राज्य में भी गायब कर दिया गया”। 2014 के बाद से पत्रकारों पर 198 “गंभीर” हमलों में से कम से कम 36 इस साल ही हुए, जिसमें नागरिकता अधिनियम के खिलाफ विरोध प्रदर्शन भी शामिल थे।