वृद्ध आश्रमों की बढ़ती संख्या हमारे नैतिक मूल्यों का पतन
(पितृ पक्ष पर विशेष)
मनुष्य का सम्पूर्ण जीवन अनेक प्रकार के अनुभवों से गुज़रता है जिसमें शिशु अवस्था, विद्यार्थी जीवन, गृहस्थ और अंत में वानप्रस्थ अवस्था आती है। और हर अवस्था में हर मनुष्य अपने पारिवारिक परिवेश और नैसर्गिक क्षमता के अनुसार विकास करता जाता है और अनेक प्रकार के कार्यों व उत्तरदायित्वों का निर्वहन भी करना अनिवार्य होता है। जन्म से लेकर माँ की ममता व स्नेह तथा पिता का अनुशासन मनुष्य के व्यक्तित्व निर्माण में सबसे प्रमुख भूमिका रखते हैं और इसी तरह माता-पिता के लिए अपने बच्चों की परवरिश सबसे बड़ी प्राथमिकता होती है। इस दरमियान उन्हें अनेकों कठिनाइयों का भी सामना करना पड़ सकता है लेकिन माता-पिता निश्छल भाव व समर्पण के साथ बच्चों के प्रति अपना कर्तव्य समझकर उन्हें जीवन पथ पर आगे बढ़ाते हैं इसीलिए तो हमारे शास्त्रों में माता-पिता को मातृ- पितृ देवो भव: कहा गया है। इसलिए यह समझ कर कृतज्ञ होना आवश्यक है कि आज जो संसार में हमारा कुछ भी अस्तित्व है उसका सम्पूर्ण श्रेय (कुछ अपवादों को छोड़कर?) माता-पिता को ही जाता है। जब बच्चे को स्नेह दुलार मिलता है तो वह अपने पूज्य पालकों के संवेदनाओं को आत्मसात करता है जिससे उसे मानसिक बल मिलता है और उसके अंदर भी माता-पिता के प्रति समर्पित रहने की प्रेरणा हासिल होती है। लेकिन फिर भी उनके द्वारा दिए निश्छल प्रेम व बलिदान की बराबरी सन्तान कभी नहीं कर सकता। लेकिन आज के युग में अधिकतर सन्तान विवाहोपरांत अपने निजी स्वार्थों में इतना लिप्त हो जाते हैं कि वे अपने बूढे माता-पिता की सेवा तो दूर उनकी उपेक्षा करना प्रारम्भ कर देते हैं। ये बात और है कि आज के माता-पिता भी दूरदर्शिता रखते हुए स्वयं भी स्वतन्त्र रहना पसंद करते हैं लेकिन किसी भी स्थिति में संतानों द्वारा बूढे पालकों की बढ़ती उपेक्षा निसंदेह एक निंदनीय कृत्य है। अभी इन दिनों पितृ पक्ष चल रहा है जिसमें हिन्दू धर्म के अनुयायियों द्वारा पूर्वजों के निमित्त विधि विधान के साथ तर्पण और श्राद्ध किया जाता है और पितरों को जल और भोजन अर्पित किया जाता है, ताकि पूर्वजों का आशीर्वाद मिलता रहे सुख शांति बनी रहे। पर विडंबना ये है कि ऐसे विधि विधान देखते ही हजारों उपेक्षित जीवित वरिष्ठ नागरिक दुखी होते हैं कि दुनिया में जीवित वरिष्ठों की तो कोई पूछ नहीं और लोग मरे हुए बुजुर्गों को याद करते हैं, आवभगत करते हैं। जो कि एक कटु सच भी है लोग बुजुर्गों के प्रति सेवा से पल्ला झाड़ लेते हैं। लेकिन अक्सर देखा गया है कहीं न कहीं अधिकतर सन्तान वही धारण करते हैं जो वे माता-पिता से सीखते हैं। इसलिए वर्तमान स्थिति का मूल कारण, समाज में नैतिक मूल्यों का ह्रास है। टूटते घर परिवार व समाज, माता-पिता में असुरक्षा व अपने ही संतानों के ऊपर विश्वास की कमी, बच्चों का अपने व्यक्तिगत जीवन व महत्वाकांक्षाओं के प्रति अति स्वार्थ सब का मिला जुला असर आज के समाज में दिखता है जिसके दोषी हम स्वयं हैं। दिन प्रतिदिन वृद्धावस्था शाखाओं की संख्या बढ़ती जा रही है जिसके लिए हमें आत्म निरीक्षण के द्वारा मूल कारण जानकर कम से कम व्यक्तिगत स्तर से बदलाव लाने का गंभीर प्रयास करना चाहिए फिर समाज व राष्ट्र में बदलाव आते देर नहीं लगती।
शशि दीप ©✍
विचारक/ द्विभाषी लेखिका
मुंबई
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