अंग्रेजी भाषा और सभ्यता आज स्टैटस सिम्बल प्रतिष्ठा का मापदंड बन गया है!

हाल ही में मुंबई में एक अंतरराष्ट्रीय संस्था द्वारा आयोजित वार्षिक समारोह में मुझे बतौर विशिष्ट अतिथि के रूप में आमंत्रित किया गया था जहां कार्यक्रम के शुभारंभ से लेकर जितने उद्बोधन हुए सभी अंग्रेजी भाषा में चलता रहा, लेकिन जब मुझे बुलाया गया तो अनायास हिन्दी में ही बोलना शुरू की तो मैंने प्रवाह को संभालते हुए भरी सभा के बीच कहा आदरणीय मित्रों मुझे एहसास हुआ कि यहां सभी हिन्दी भाषी जनों से सभागार भरा हुआ है इसलिए हिन्दी में ही अपनी बात रखना चाहूँगी। मुझे आशा ही नहीं विश्वास है यहां उपस्थित सभी मेरी बात समझ पाएंगे और मैंने आगे कार्यक्रम में मेरी भूमिका के बारे में सारगर्भित उद्बोधन प्रस्तुत किया और हॉल तालियों की गड़ गड़गड़ाहट से गूंज उठा। यही नहीं, बहुत से लोग अलग से बेहद प्रसंशा करते रहे, और कुछ प्रसंशक तो ऑटोग्राफ भी लिए। ऐसी भावभंगिमा ने मुझे भावविभोर कर दिया और घर आने के बाद चिंतन करने का एक अवसर प्रदान किया कि मैंने ऐसा कौन सा महान काम किया बस अपने देश में अपने देश की सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा ही तो बोली इसमें कौन सी बड़ी महानता की बात है। पर एहसास हुआ जिस प्रकार बड़े शहरों में अंग्रेजी भाषा का प्रचलन बढ़ता जा रहा है ऐसा प्रतीत होता है मानों आगामी पांच में अँग्रेजी का प्रयोग हिन्दी से भी अधिक होने की आशंका है। हालांकि ज्ञान के लिए और देश विदेश के विभिन्न क्षेत्रों से जुड़ने के लिए अंग्रेजी आना जरूरी है लेकिन उसे साधारण बोलचाल में शामिल कर हिन्दी की गरिमा को धूमिल करना बिल्कुल ठीक नहीं। हमारे संविधान में राष्ट्रभाषा का सम्मान हिन्दी को प्राप्त है जो प्रमुखत: उत्तर भारत व मध्य भारत में अधिकांश लोगों द्वारा बोली जाती है परंतु यह बड़ी ही दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि राष्ट्र भाषा होते हुए भी दक्षिणी भारत के अनेक क्षेत्रों में आज भी हिन्दी भाषा को लोग बोल समझ नहीं पाते हैं। उनके लिए अंग्रेजी और उनकी क्षेत्रीय भाषा ही प्रधान है। कार्यालयों में भी अधिकांश कार्यों के लिए अँग्रेजी भाषा ही प्रयुक्त होती है। इस प्रकार हिन्दी भाषा का सीमित उपयोग अँग्रेजी की बहुलता के लिए उसके कार्य को और आसान बना देता है। न जाने क्यों लोगों को अंग्रेजी में बोलना और कार्य करना बहुत सम्मानजनक प्रतीत होता है। और भेड़चाल का अनुसरण करती युवा पीढ़ी का अँग्रेजी के प्रति मोह स्वाभाविक है। इसके अतिरिक्त स्कूलों, कालेजों व अन्य सरकारी एवं निजी शिक्षण संस्थानों में धीरे-धीरे अँग्रेजी बोलना अनिवार्य किया रहा है। देश विदेश की विभिन्न नौकरियों में भी अँग्रेजी को ही बहुलता दी जाती है। ऐसे माहौल में जिनकी अँग्रेजी कमजोर है उन्हें हेय दृष्टि से देखा जाता है मेरे कई मित्र हीन भावना के शिकार भी हो जाते हैं जबकि ऐसा वातावरण हमें बनाना ही नहीं चाहिए। अंग्रेजी को स्टैटस सिम्बल प्रतिष्ठा का मापदंड बनाना बेहद शर्मनाक है। मुझे याद है जब हम मुंबई में शुरू शुरू आए थे तब हमारे आस-पास के लोगों में एक ऐसी औरतों का समूह था जिनके मेंबर हम जैसे हिन्दी प्रेमियों को तवज्जो ही नहीं देतीं थीं पर जब हम समझ गए तो कुछ दिन इंग्लिश में बात करके खुद को स्थापित किए लेकिन हिन्दी की गरिमा को ऊपर ही रखे और अब वे सभी हमारी हिन्दी से बेहद प्रभावित होते हैं। इस प्रकार अंत में यही कहना चाहूँगी कि प्रत्येक सभ्यता और संस्कृति की अपनी विशेषता होती है। यदि हम अंग्रेजी भाषा व अँग्रेजी संस्कृति को आत्मसात करें तो कोई बुराई नहीं परंतु अपनी संस्कृति अपना अस्तित्व अपने देश की गरिमा को बनाए रखना भी अति आवश्यक है और हमारी जिम्मेदारी भी है।
जय हिन्द जय भारत

शशि दीप ©✍
विचारक/ द्विभाषी लेखिका
मुंबई
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