खुद को अल्पज्ञानी समझना ही सबसे ख़ास उपलब्धि

अभी एक दो दिन पहले देश भर में गुरु पूर्णिमा का पावन पर्व मनाया गया। उस दिन मैंने लेखनी को बिल्कुल विराम देकर सिर्फ चिंतन को महत्व दिया। मंथन के फलस्वरुप प्रश्न उठा कि क्या सचमुच दुनिया में कोई ऐसा गुरु होता है जो हममें हमारी जिज्ञासा के बगैर, हमारी महत्वाकांक्षा के बिना हमें ज्ञान से प्रकाशित कर सकते हैं? क्या किसी की चाह के बिना राह सम्भव है? मेरे अन्दर से जवाब मिला बिल्कुल नहीं। यही कारण है कि मैंने खुद में ईश्वर प्रदत्त गुणों को पहचानते हुए जिंदगी के अब तक के सफर में जिन विभूतियों से मुझे विशेष मार्गदर्शन मिला, या मिल रहा है जिन्होंने मेरी हस्ती को किसी खास तहजीब/तालीम से नवाजा, उन बातों को अपने में ढूंढा और अवलोकन किया कि क्या सचमुच मेरे द्वारा जिंदगी में उन्हें आत्मसात किया जा रहा है? क्या हम अपने को सार्थक बना पा रहे हैं? क्या जिनका सानिध्य मिला उनकी सीख से प्रेरणा लेकर बेहतर कर पा रहे हैं? तब समझ आता है कि किसी अच्छे काम में लगे हैं फिर सीखने समझने की कोई सीमा ही नहीं। चाहे कितनी भी उपलब्धियां हासिल कर लें, कितना भी तजुर्बा हो जाए, इस ब्रह्मांड में एक धूल के कण से बढ़कर हम कुछ नहीं। इसलिए इस सच्चाई में जीना ही जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है कि “मेरे पास बहुत अल्प ज्ञान है, मैंने सीखा ही क्या है, पाया ही क्या है।” सच भी तो है न। हमें ईश्वरीय निगरानी को अनुभूत करना है और समझना होगा कि मेरा विकास, मेरी सीख, मेरी खुशी, मेरी पीड़ा, मेरा जुनून, मेरी प्रगति, मेरी पहल, मेरी उपलब्धि, मेरी प्राप्ति; ये सब ऊपर वाले की योजनाएँ हैं जो वो मेरे माध्यम से निष्पादित कराए जा रहे हैं। और जिस दिन मेरे द्वारा उनकी योजनाएं समाप्त हो जाएगी ईश्वर अपने निवास पर वापस बुला लेंगे। इसलिए किसी भी चीज से हद से अधिक मोह किए बिना अपने उपक्रम में लगे रहना ही जीवन को सर्वोत्तम ढंग से जीना है। हमें आश्वस्त रहना चाहिए कि स्वयं के भीतर विद्यमान ईश्वरीय तत्व ही सर्वोच्च गुरु है। हमें उसी तत्व का नमन करने की आवश्यकता है। उसी के प्रबल अनुयायी बनना है। जब भीतर के वो भगवान हमारे आगे आगे होते हैं तो कभी कुछ गलत होता ही नहीं। जीवन को भरपूर जीते हुए हमें सचेत रहना है ताकि जब पुकारते हैं तो एक विजेता की तरह सर उठा कर जा सकें। जीवन में अनिश्चितता शाश्वत सत्य है लेकिन हमें डरने की ज़रूरत नहीं है; हर काम समय पर करते जाना है और मुस्तैद रहना है। याद रखना है सचमुच कुछ भी मेरा नहीं है, मैं कुछ भी नहीं हूं यहां से कुछ भी लेकर नहीं जाना है। लेकिन उसने मुझे जीवन दिया, जिसे सार्थक ढंग से जीना ही विधाता के प्रति सच्ची कृतज्ञता होगी। एक दिन एक मित्र ने पूछा “दोस्त! क्या तुम्हें बोर नहीं लगता रोज ये इतना लिखना, पढ़ना, सोचना फिर इतना कुछ करना।” मैंने कहा बिल्कुल नहीं, जब हम किसी काम को किसी के दबाव में आए बगैर अपनी इच्छा शक्ति से करते हैं तो सतत अभ्यास, सीखने की जिज्ञासा लिए प्रवाहमय रहते हैं, शायद इसे ही साधना भी कहते हैं।

पाठकों से एक छोटा सा उदाहरण और साझा करना चाहूँगी एक दिन मेरे दोनों बच्चों में रोज की तरह नोंक झोंक हुआ था उसके बाद दोनों एक दूसरे से रूठे हुए थे लेकिन कुछ ही देर के बाद बहन ने भाई को उन दोनों के पसंद की चीज बनाकर अच्छे से पेश किया, मैंने सोचा दोनों में बातचीत न होने के बावजूद इस छोटी सी लड़की ने व्यंजन को अच्छी तरह बनाकर खिलाया, मैंने पूछा क्या बात है तुम तो भाई से नाराज हो न फिर भी उसके लिए इतना मन लगाकर सैंडविच बना रही हो? उसका ज़वाब था, “इस काम में मेरी दिलचस्पी है इसलिए बना रही हूँ इस बात से मुझे कोई मतलब नहीं कि इसे कौन खाने वाला है।” मैंने चिंतन किया कि दरअसल इस छोटी सी अभिव्यंजना में बहुत ही गूढ़ जीवन दर्शन समाहित था। सही बात तो है जब हमें खुद को महानता के शिखर की ओर अग्रसर करना है तो अपने रूझान के कार्यों में खुद को बेहतर करने की, खुद के भीतर को राग द्वेष से खाली रखने की कोशिश होनी चाहिए। ऐसी मानवीय प्रवृत्तियां निसंदेह सूक्ष्म अनुभूतियों को अपने संवेदन में बांध लेने की क्षमता रखते हैं। प्रतिदिन हमें स्मरण रहे…
चरैवेति चरैवेति ज्योतिर्मा ज्योतिर्गमयसतो मा सदगमयअम्रृतो मा अमृतमगमयआन्नदोमा आनन्दगमय। अर्थात चलते रहो चलते रहो, प्रकाश से प्रकाश की ओर सत्य से सत्य की ओर जीवन से जीवन तक आनंद से आनंद की ओर और नित्य अपनी आत्मा को प्रणाम करें ताकि स्वयं के असली स्वरूप की अनुभूति हो जाए।

शशि दीप ©✍
विचारक/ द्विभाषी लेखिका
मुंबई
shashidip2001@gmail.com