भारतीय समाज में मौजूद एक अभिशप्त प्रथा “देवदासी”

वर्तमान समय में भारत में एक कथित पटकथा पर आधारित फिल्म के नाम पर देश भर में चर्चा का बाजार गरम रहा है। धर्मांतरण की आड़ में धर्म विशेष या राज्य विशेष पर हमला करने वाले कथित लोगों को भारतीय नारी की अस्मिता की चिंता देश भर में जारी है। फिल्म के पक्ष विपक्ष में आए विचारों के बीच जहां राजनीतिक पृष्ठभूमि के लोग कहें या विचारकों की बात करें तो उनके द्वारा केरल स्टोरी के कथानक की विषय वस्तु पर आधारित जो तथ्य उजागर किए वह समाज के लिए गंभीर थे। इसी बीच एनसीआरबी के आंकड़ों ने जहां गुजरात सहित मध्यप्रदेश में महिलाओं के लापता होने के तथ्य उजागर कर कथित महिला हितेषियों के मुंह पर कालिख पोत दी है।

 

भारत में महिला विरोधी अभियान आज से नहीं देश की आजादी से पूर्व ही नही वरन पुरातन काल से देखने में आया है। हमारे समाज में बाल विवाह, भ्रूण हत्या सहित सबसे पुरानी और घृणित कुप्रथा देवदासी आज भी मौजूद है और हमारी सरकारें चाहकर भी इस घृणित प्रथा को जड़ मूल से नष्ट करने में नाकाम रही हैं और यह प्रथा आज भी जीवित है जो भारतीय महिला की स्वतंत्रता, अस्मिता, स्वाभिमान के लिए कलंक का प्रमाण है।

 

आज हम उसी देवदासी प्रथा पर आप को उसकी सच्चाई से रूबरू करा रहे हैं। एक मान्यता अनुसार देश में देवदासी प्रथा के अंतर्गत देवी/देवताओं को प्रसन्न करने के लिये सेवक के रूप में युवा लड़कियों को मंदिरों में समर्पित करना होता था । इस प्रथा के अनुसार, एक बार देवदासी बनने के बाद ये बच्चियां न तो किसी अन्य व्यक्ति से विवाह कर सकती है और न ही सामान्य जीवन व्यतीत कर सकती है। देवदासी शब्द दुनियाभर के लोगों के लिए भले ही किसी अंजान, अपरिचित शब्द की तरह हो, लेकिन दक्षिण भारत के समाज की यह एक कड़वी सच्चाई है। ओडिशा, कर्नाटक, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों के मंदिरों में अभी भी देवदासी प्रथा प्रचलित है। यह कुप्रथा भारत में आज भी महाराष्ट्र और कर्नाटक के कोल्हापुर, शोलापुर, सांगली, उस्मानाबाद, बेलगाम, बीजापुर, गुलबर्ग आदि में विद्यमान है।

आज भी कहीं वैसवी, कहीं जोगिनी, कहीं माथमा तो कहीं वेदिनी नाम से देवदासी प्रथा देश के कई हिस्सों में कायम है। कर्नाटक के 10 और आंध्र प्रदेश के 14 जिलों में यह प्रथा अब भी बदस्तूर जारी है।

देवदासी हिन्दू धर्म में ऐसी स्त्रियों को कहते हैं, जिनका विवाह मन्दिर या अन्य किसी धार्मिक प्रतिष्ठान से कर दिया जाता है। समाज में उन्हें उच्च स्थान प्राप्त होता है और उनका काम मंदिरों की देखभाल तथा नृत्य तथा संगीत सीखना होता है। परंपरागत रूप से वे ब्रह्मचारी होती हैं, पर अब उन्हे पुरुषों से संभोग का अधिकार भी रहता है। यह एक अनुचित और गलत सामाजिक प्रथा है। इसका प्रचलन दक्षिण भारत में प्रधान रूप से था। बीसवीं सदी में देवदासियों की स्थिति में कुछ परिवर्तन आया। पेरियार तथा अन्य नेताओं ने देवदासी प्रथा को समाप्त करने की कोशिश की। कुछ लोगों ने अंग्रेजों के इस विचार का विरोध किया कि देवदासियों की स्थिति वेश्याओं की तरह होती है।

 

कर्नाटक के अधिकतर शैव मंदिरों में सुबह स्वस्ति मंत्रों के उच्चारण के समय, रथयात्रा, रंगभोग और अंगभोग में देवता के समक्ष देवदासी की उपस्थिति अनिवार्य होती थी। मत्स्य पुराण के अध्याय 70 में 41-63 श्लोक में कहा गया है कि देवदासियों को संतान होना कोई पाप नहीं है। आज भी इस कुप्रथा को चोरी छिपे अपनाया जाता है। इस प्रथा में शामिल 90 फीसदी लड़कियां अनुसूचित जाति और जनजाति से तालुका रखतीं हैं। बड़ी कुल की लड़कियां इस कुप्रथा का हिस्सा नहीं होती हैं। ना ही लड़के की पत्नी इसका हिस्सा होती हैं। लड़के सामान्य जीवन जीते हैं। 2008 के कर्नाटक राज्य के महिला विकास निगम के सर्वे के अनुसार राज्य में 40600 कुल देवदासियां थीं। पर एक गैर सरकारी संस्था ने 2018 में अपने आंकड़ों ने देवदासियों की संख्या 90000 बतायी थी। कर्णाटक विजयनगर के कुड़लीगी में 120 गांवों में 3 हज़ार से अधिक देवदासियां होने का अनुमान लगाया गया है। जिनमें 20 फीसदी लड़कियां 18 साल से कम आयु की पाई जाती हैं।

प्राप्त जानकारी अनुसार कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में इस प्रथा को क्रमशः साल 1982 और 1988 में प्रतिबंधित कर दिया गया था। हालांकि आज भी कथित तौर पर भारी संख्या में महिलाएं देवदासी के रूप में अपना जीवन व्यतीत कर रही हैं। कुछ साल पहले आई राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की एक रपट के अनुसार देश में अब भी साढ़े चार लाख देवदासी हैं। आयोग ने यह भी कहा था कि दक्षिण भारत के मंदिरों में छोटी बच्चियों को देवदासी के रूप में रखने की परंपरा शारीरिक शोषण का एक बड़ा माध्यम है। हालांकि कर्नाटक में देवदासियों की ‘येल्लम्मा’ परंपरा आज भी बनी हुई है। इस परंपरा में लड़कियों को देवी येल्लम्मा की सेवा में बहुत कम उम्र में समर्पित कर दिया जाता है। इन देवदासियों को बाद में अपने जीवनयापन के लिए वेश्यावृत्ति के पेशे में उतरना पड़ता है। चूंकि येल्लम्मा देवदासियों को इस काम के लिए सामाजिक स्वीकृति मिली हुई होती है, इसलिए उन्हें कोई अपराधबोध नहीं होता। वैसे भी येल्लम्मा के अनुयायी ज़्यादातर गरीब तबके के हैं, जिनके जीवन में कई किस्म की दिक्कतें हैं।कर्नाटक के बेलगाम जिले के सौदती स्थित येल्लमा देवी के मंदिर में हर वर्ष माघ पुर्णिमा के दिन किशोरियों को आज भी देवदासियां बनाया जाता है।

भारत से देवदासी प्रथा खत्म न होने के बहुत से महत्वपूर्ण कारण हैं जिनके कारण यह कुप्रथा आज भी देश में जीवित है। देश में यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण (POCSO) अधिनियम, 2012 और किशोर न्याय (JJ) अधिनियम, 2015 को अधिनियमित करते समय बच्चों के यौन शोषण के एक रूप में देवदासी रूपी इस कुप्रथा का कोई संदर्भ नहीं दिया गया है। इसी प्रकार भारत के अनैतिक तस्करी रोकथाम कानून या व्यक्तियों की तस्करी (रोकथाम, संरक्षण और पुनर्वास) विधेयक, 2018 में भी देवदासियों को यौन उद्देश्यों हेतु तस्करी के शिकार के रूप में चिह्नित नहीं किया गया है। यही मूल कारण है कि देश में देवदासी प्रथा को जड़मूल से समाप्त करने का कोई ठोस प्रबंध नही हुआ, प्रतिबंधात्मक कदम के अभाव में यह प्रथा आज भी समाज में जीवित है।

 

साल 2019 में नेशनल लॉ स्कूल ऑफ इंडिया यूनिवर्सिटी (NLSIU), मुंबई और टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज़ (TISS), बेंगलुरु द्वारा ‘देवदासी प्रथा’ पर दो नए अध्ययन किये गए। ये अध्ययन देवदासी प्रथा पर नकेल कसने हेतु विधायिका और प्रवर्तन एजेंसियों के उदासीन दृष्टिकोण की एक निष्ठुर तस्वीर पेश करते हैं। लेकिन अध्ययन का असर कागज़ों तक सीमित रह गया और कागजी कार्यवाही पर ही दम तोड़ गया।

देवदासी प्रथा को लेकर कई गैर-सरकारी संगठन अपना विरोध दर्ज करा चुके हैं। इन संगठनों का मानना है कि अगर यह प्रथा आज भी बदस्तूर जारी है, तो इसकी मुख्य वजह इस कार्य में लगी महिलाओं की सामाजिक स्वीकार्यता है। इससे बड़ी समस्या इनके बच्चों का भविष्य है। ये ऐसे बच्चे हैं, जिनकी मां तो ये देवदासियां हैं, लेकिन जिनके पिता का कोई पता नहीं है। ये तमाम समस्याएं उठाने वाली रितेश की इस फिल्म को मानवाधिकारों के हनन का ताजा और वीभत्स चित्रण मानते हुए राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मंचों पर प्रदर्शित किया जा रहा है। रितेश हालांकि मानते हैं कि फिल्म के प्रदर्शन से ज्यादा जरूरी है कि इस विषय पर हमारे देश की कानून व्यवस्था कोई ठोस कदम उठाए, जिससे न केवल इस कुप्रथा का उन्मूलन हो, बल्कि ऐसी महिलाओं और उनके बच्चों को भी पुनर्वासित किया जा सके, जो इस कुप्रथा की गिरफ्त में हैं।

 

वर्तमान स्थिति में देश में यदि महिला उत्थान या उनकी अस्मिता स्वाभिमान को संरक्षित करने का ज़रा भी ध्यान हो तो हमें देश में व्याप्त इस कुप्रथा देवदासी को समाप्त कर महिलाओं को मुख्य धारा से जोड़कर उनकी स्वतंत्रता ,अस्मिता को कायम करना होगा।

 

सैयद खालिद कैस 

स्वतंत्र लेखक,पत्रकार