वाग्मिता की कला विनम्रता व समय नियमन बिना निरर्थक

बरसों से साहित्यिक/ सांस्कृतिक कार्यक्रमों में रुझान होने के कारण ऐसे कार्यक्रमों में सहभागिता से शुरूवात करते-करते अब करीब एक दशक से ज्यादा हो गए अक्सर सूत्रधार की भूमिका में रहते हुए प्रोग्राम की पूरी योजना तैयार करना और उसे कुशलतापूर्वक निष्पादित करना अब जैसे आदत में शुमार हो चुका है। यह सब ईश्वर की कृपा है, जैसा वो करवा रहे हैं प्रवाह में बह रहे हैं।पहले सहभागिता में अपनी बारी का इंतजार रहता था कि कब कुछ बोलने का अवसर मिलेगा, कितना बोलना है, समय सीमा का ध्यान रखना है ये सब बातें जहन में हुआ करती थी। अब समय की एक निश्चित मात्रा हाथ में लेकर बहुतों में वितरित करने की जिम्मेदारी रहती है तब समझ में आता है कि आजकल लोगों में बोलने के लिए आतुरता कितनी बढ़ गई है। लेखक, कवि, विचारक या और किसी अन्य क्षेत्र के थोड़े भी तजुर्बे वाले हों उन्हें बस बोलने के लिए कोई विषय दिया गया हो या न दिया गया हो, मौका मिलते ही ऐसे टूट पड़ते हैं जैसे महीनों के भूखे हों।बार-बार इंगित करने के बावजूद समय सीमा से ज्यादा बोलना अधिकतर अभ्यागतों की फितरत बन चुकी है। चाहे आभासी पटल हो या असली मंच हो एक बार माइक हाथ आ तो गई फिर जल्दी अपनी बात खत्म करके दूसरों को सुनें यह प्रवृत्ति बहुत ही कम लोगों में देखने को मिलती है। बाकी सभी ऐसा एहसास कराते हैं जैसे कितने दिन से किसी से बोले न थे या अपने विचार को साझा करने के लिए कोई समान रूझान के साथी न मिलें हों। तभी इंसान वाणी विसरित करने लिए इतना लालायित रहता है। न जाने कितने दिनों से अपने अंदर अपने विचार को सहेजे रखा होगा ताकि अपनी बिरादरी के लोग मिलते ही उन्हें अभिव्यक्ति कर सके। खैर बुद्धिजीवी वर्ग यह तो अच्छी तरह समझते हैं कि सभी वक्ताओं की क्षमता भिन्न-भिन्न होती है इसलिए त्रुटियों को नज़रअंदाज कर सहानुभूति प्रदर्शित करने में माहिर होते हैं। बोलने के लिए छटपटाहट का कारण यह भी हो सकता है कि आजकल मोबाइल और सोशल मीडिया के ज़माने में घर के सभी सदस्य भी पहले की तरह बात नहीं करते सब अपने अपने मोबाइल में अपने अपने पसंदीदा चीज देखते सुनते रहते हैं और साथ साथ रहकर भी सिर्फ काम से काम ही बात करते हैं। जिससे हर सदस्य अपने अभिव्यक्ति का माध्यम या अपनी रुचि वाली बिरादरी की तलाश में रहता है। हर बार जब मैं किसी कार्यक्रम की योजना बनाती हूं तो मेरे लिए सबसे बड़ी चुनौती यही होती है कि समय सीमा के अंदर कार्यक्रम को कैसे प्रेमपूर्वक आदरपूर्वक निष्पादित किया जाए इसीलिए मेरे कार्यक्रमों में पहले से ही तीन मिनट का समय हर प्रतिभागी के लिए और पांच मिनट का समय मुख्य अभ्यागतों के लिए निर्धारित रहता है लेकिन सिर्फ दस प्रतिशत लोग ही उस अनुशासन का पालन करते हैं बाकी सभी सिर्फ बोलने की अपनी इच्छा को संतुष्ट किए बिना नहीं रहते, हंसी तब आती है जब वक्ताओं को इस बात की भी परवाह नहीं रहती की कोई उन्हें ध्यानपूर्वक सुन भी रहा है या नहीं। कुछ लोग तो वरिष्ठ वर्ग के होकर भी इतने अपरिपक्व होते हैं कि दो तीन पन्ने का भाषण पढ़ने लगते हैं ऐसे में संचालक का सब्र अपने चरम में होता है, कहीं बीच में टोक दे तो सामने वाले का अनादर होगा और नहीं टोक पाए तो झेलो फिर। खैर कहने तात्पर्य यह है कि सरलता और मधुरता के साथ रोचक और प्रभावी ढंग से स्पष्ट और संक्षिप्त भाषा में अपने विवेक व शब्द चातुर्य से अपनी बात रखने के अंदाज को निरंतर निखारने का प्रयास करना चाहिए। ताकि श्रोता आपको सुनने में दिलचस्पी दिखाए अन्यथा आपकी वाणी निरर्थक हो सकती है। साथ ही आपकी फजीहत भी होना स्वाभाविक है। वक़्त की कमी होती है और बहुतों को भी सुनना होता है इसलिए अपनी अभिव्यक्ति मैं धैर्य लगन और पैनी नज़र रखते हुए ऐसे बोले कि लोग आपको सुनने के लिए स्वतः आकर्षित हों, अपनी आभा में विनम्रता हो न कि अहंकार व हठधर्मिता। किसी भी जगह या सभा गोष्ठी में ऐसी परिस्थिति पैदा न करें या ऐसी बात न करें जिसे हम स्वयं सुनना पसंद नहीं करते। प्रसिद्ध तत्ववेत्ता सिसरो ने एक बार कहा था जैसे मौन एक कला है उसी प्रकार वागमिता भी एक कला है। ऐसा व्यक्ति जो समय का ध्यान रखे, सबको ध्यान से सुने, स्पष्ट प्रश्न करे, अपनी बात को सारगर्भित अंदाज में रखे, या मौन रहे, अपनी जिज्ञासा को प्रखर व सक्रिय रखकर विनम्र रहे वह निस्संदेह उच्च व्यक्तित्व का धारक कहलाता है और किसी भी गोष्ठी या मित्र मंडली की शोभा बढ़ा सकता है।

 

  • शशि दीप ©✍
  • विचारक/ द्विभाषी लेखिका
  • मुंबई
  • shashidip2001@gmail.com