खुद की संगत ही सर्वोपरि है!

 

“अपनत्व से लबरेज़ संगत को कौन नहीं तरसता, और ऐसा कोई मिल तो जाये फिर शायद ही उनसे कोई होता है जुदा।” मुझे मेरे बहुत से दोस्त कहते हैं कि मुझसे बच्चे, बूढ़े, जवान सब खुश रहते हैं। क्योंकि मुझे जानने वाले लोग इस बात से भली-भांति वाकिफ हैं, कुदरती नेमत होने की वजह से मैं शुरू से ही हर उम्र के लोगों से आसानी से बातचीत कर सकती हूँ। इतना ही नहीं मुझे कभी-कभी बुज़ुर्गों के, कभी हमउम्र तो कभी बच्चों के सानिध्य में रहना बेहद पसंद है, यही कारण है कि मेरे आस-पड़ोस में रहने वाले बुज़ुर्ग बिरादरी, बच्चों की टोली, नौजवान बच्चे सभी से भरपूर यथोचित आदर मान-सम्मान और प्रेमभाव मिलता रहा है। शुरू से ही ग्राही प्रवृत्ति होने के कारण मेरा मानना है कि निश्छल प्रेम और सद्भावना के धारक, संवाहक होने के साथ ही साथ कहीं हम अच्छी व्यवहारिकता प्रतिपादित करने में माहिर हों तो चाहे किसी से भी जुड़े कुछ न कुछ सिखने को मिलता है। बुजुर्गों से ज़िन्दगी का तजुर्बा तो बच्चों से निरीहता व भोलापन, नौजवानों से लेटेस्ट ट्रेंड्स तो हमउम्र की संगति समकालिक होने से एक दूसरे को बेहतर समझने की सहूलियत प्रदान करती है। खैर ये तो है साधारण साहचर्य भाव की व्याख्या, जिसका हमारे असली चरित्र पर गहरा प्रभाव नहीं पड़ता लेकिन हमारा व्यक्तित्व ज़रूर समृद्ध होता जाता है। लेकिन इंसानी फितरत है, वह जन्म से ही हर उम्र में किसी ना किसी से गहरी संगति जोड़ता ही है। तभी तो हम जन्मदाता माता और पिता में से भी किसी एक किसी एक के मानवीय गुणों से ज़्यादा प्रभावित होते हैं भले प्यार दोनों को बराबर करते हैं। मैं खुद अपने पिता के सानिध्य में ज़्यादा रही, मतलब उनके विचारों की अनुयायी, उनके कर्मों की प्रसंशक, उनके बातों की समर्थक/पोषक। कहने का तात्पर्य यह है कि मनुष्य अपने दैनिक जीवन में जिसके साथ प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष अधिक से अधिक समय व्यतीत करता है, उस संगति का असर उसके व्यक्तित्व पर पड़ना स्वाभाविक है हाँ कई बार इसका अपवाद भी देखने को मिलता है। इसलिए संगत का असर या संगत से बेअसर रहना ये दोनों ही बातें मनुष्य में श्रेष्ठ मानवीय गुणों की मौजूदगी और सही समय पर उन गुणों की अभिव्यंजना का नतीजा होता है। संगत कभी-कभी ज़रा पेचीदा होता है जैसे गुटबाजों की संगत तो बेहद खतरनाक होती है, ऐसे लोगों की फ़ितरत महज़ दोस्ती का धंधा करना है, जिधर उनकी स्वार्थसिद्धी होती दिखे वे उधर हो लेते हैं और कभी-कभी हम ऐसे अजीबोगरीब हालात में फंसे रहते हैं तब समझ में आता है खुद की संगत ही लाज़मी है खुद के भीतर बैठे असली खुद से मुखातिब होकर खुद को निरंतर समझना फिर परवरदिगार के सामने सब कुछ बयां कर देना और फिर आखिरी में जो “वो” कहे उस पर ही अमल करना, यही संगति के मायने को ठीक ढंग से समझना है इस संगत का असर हमें कभी गलत दिशा नहीं दिखा सकती पर विरले ही लोग इस गूढ़ रहस्य को आत्मसात कर पाते हैं। बौद्ध दर्शन का सार भी यही सिखाता है ‘अप्प दीपो भव’ अर्थात अपना प्रकाश स्वयं बनें, अपना रास्ता खुद तलाशें। ईश्वर हम सबको सद्बुदधी दे।

 

शशि दीप ©✍

विचारक/ द्विभाषी लेखिका

मुंबई

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