वर्तमान संदर्भ में आजाद देश में गुलाम होती पत्रकारिता कहा जाना गलत नहीं होगा

देश में इन दिनों पत्रकारिता जगत के गिरते स्तर से हम सब चिर-परिचित हैं। निष्पक्ष पत्रकारिता पर हो रहे हमलों के बीच हम इस बात से इंकार नहीं कर सकते की लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ पर हो रहे हमले से पत्रकारिता लहू लुहान हो चुकी है।यही कारण है कि निष्पक्ष पत्रकारिता के स्थान पर चाटुकारिता, पक्षपात पूर्ण व्यवहार तथा शासन सत्ता की स्तुति ने स्थान ले लिया है। वर्तमान संदर्भ में पत्रकरिता का समाज के उत्थान की भावना, शासन सत्ता के पाखंड को उजागर करने, घोटालों और कदाचार को लेकर खबरें हाशिए पर नजर आने लगी हैं। शासन प्रशासन की गलत नीति पर आक्षेप करने वाले पत्रकारों की दुर्दशा देखकर अब निष्पक्ष पत्रकारिता की मशाल उठाने वाले अब कम ही दिखने लगे हैं।इसी पर चिंता व्यक्त करते हुए विगत माह पूर्व चीफ जस्टिस पेशेवर तथा करिअर की शुरुआत एक पत्रकार के रूप में करने वाले जस्टिस एनवी रमना ने एक कार्यक्रम के दौरान कहा था कि पूर्व में हमने घोटालों और कदाचार को लेकर अख़बारों की रिपोर्ट देखी हैं, जिनसे हलचल पैदा हुई हैं, लेकिन हाल के सालों में बेमुश्किल एक या दो को छोड़कर इस तरह की कोई खोजी रिपोर्ट याद नहीं आती। उनका यह वक्तव्य इस बात का प्रमाण है कि अब खोजी पत्रकारिता का क्षरण हो चुका है तथा सत्ता और सरकार की नीति पर, घोटालों ओर कदाचरण को उजागर करना पत्रकारिता के क्षेत्र में जोखिम भरा कार्य हो गया है। ऐसे में खोजी पत्रकारिता का अस्तित्व खतरे में आ चुका है।

 

पत्रकारिता पर हो रहे हमलों पर ही गत दिनों जस्टिस यू यू ललित ने कहा कि आज के दौर में ही नहीं हमेशा से ही ज़्यादातर पत्रकार अपना पक्ष तय करके ही आगे बात बढ़ाते हैं। फोकस पॉलिसीज औऱ मुद्दों पर कम व्यक्ति, पार्टी, विचारधारा और स्वहित के समर्थन विरोध पर ज्यादा होता है। निष्पक्ष पत्रकार बहुत कम हैं और वो अकेले ही अपनी जगह अपने संघर्ष कर रहे हैं। जिनके पक्ष तय हो चुके या जो तय कर रहे हैं उनके ग्रुप्स हैं। समस्या यह है कि जिसके मन की बात न हो उसी के लिये पत्रकार निष्पक्ष नहीं है, वही पत्रकारों को तमाम सर्टिफिकेट देने बैठे हैं। आलम यह है कि पत्रकारों के वाजिब अधिकारों की बात पर भी नजरें और मुंह दोनों चुराने लगते हैं आखिर कहीं न कहीं तो पक्ष तय है ही इन अघोषित निष्पक्ष पक्षकारों का। उन्होने यह भी कहा था कि सरकार की निष्पक्ष आलोचना करना हर पत्रकार का अधिकार है। उन्होंने कहा कि पत्रकार को आम नागरिक के भांति सरकार की नीतियों और कृत्यों पर टिप्पणी करने का पूरा अधिकार है, और जो राजद्रोह नहीं है। उन्होंने कहा था कि सरकार की निष्पक्ष आलोचना देशद्रोह नहीं हो सकती।

लेकिन हकीकत में निष्पक्ष आलोचना करना आज के समय में इतना सरल नहीं रहा जितना पहले हुआ करता था। यही कारण है कि आजादी के 75साल गुजर जाने के बावजूद आज की पत्रकारिता को स्वतंत्र कहना अतिश्योक्ति होगी।

इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि मीडिया भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में कमियों को उजागर करता है, जो आखिरकार सरकारों को कमियों की रिक्तता को भरने और एक प्रणाली को अधिक जवाबदेह, उत्तरदायी और नागरिक-अनुकूल बनाने में मदद करता है। यही कारण है कि पत्रकारिता को वर्तमान संदर्भ में आजाद देश में गुलाम होती पत्रकारिता कहा जाना गलत नहीं होगा जो स्वतंत्र पत्रकारिता, निष्पक्ष पत्रकारिता के लिए शुभ संकेत नही हैं।

 

सैयद खालिद कैस: संस्थापक अध्यक्ष,प्रेस क्लब ऑफ वर्किंग जर्नलिस्टस