अहंकार के साथ जीवन पतन की ओर मार्ग प्रशस्त करता है उत्थान और आनंद की ओर कदापि नही!
नए साल की दस्तक के साथ मेरी हाउस हेल्प निशा के घर में जैसे मुसीबत का पहाड़ टूट पड़ा। उनकी अच्छी भली माँ अचानक बीमार हो गयी, और वो होश खो बैठी ऐसे में निशा को चार दिन की छुट्टी लेनी पड़ी लेकिन दवा और दुआ दोनों काम नहीं आयी, क्योंकि उन्हें भगवान के घर का बुलावा आ चुका था, और 5 वें दिन उन्होंने दम तोड़ दिया। इस बीच मुझे एक दूसरी हाउस हेल्प रज़िया का सहारा लेना पड़ा, जो की बेहद ईमानदार और खुशमिज़ाज महिला लगी। पहले दिन ही उसने मुस्कुराते हुए मुझे आश्वस्त कर दिया कि “दीदी आप फिक्र ना करो, निशा के आते तक मैं आपका काम संभाल लूंगी। वैसे मैं छुट्टे काम का ज़्यादा पैसा लेती हूँ पर निशा करीब 15 दिन नहीं आएगी तो आप मुझे महीने के पगार के हिसाब से ही पैसे दे देना।” ये सब रज़िया की अपनी भावनाएं थी जबकि मैंने ऐसा कुछ सोचा ही नहीं और पैसे देने के मामले को गंभीरता से लिया ही नहीं था। पर एक इंसान होने के नाते, इतनी ज़रूरतमंद होने के बावजूद उसकी समझदारी को देखकर मैं अचंभित थी। बात दरअसल ये भी थी कि उसे मेरे घर के काम से ज़्यादा मेरे घर का वाइब्स, हमारा उसके प्रति व्यवहार बहुत भा गया। वो ये बात बार-बार कहती रही। तब मैंने मैं भी एक दो बार उसे कहा कि “रज़िया तुम दिल की बहुत अच्छी लगी और तुम्हारा बात व्यवहार भी बहुत विनम्र है।” इतने में रज़िया ने झट से कहा की “दीदी क्या ले के जाना है दुनिया से?” उसकी ये गहरी बात मेरे दिल को छू गयी। सच ही तो है दुनिया से खाली हाथ ही तो जाना है हम सब को, और ये मीठे बोल ही तो रह जायेंगे दुनिया में। दूसरे दिन मैंने उसे कहा “रज़िया तुम ज़रा काम संभालो मैं निशा के घर से आती हूँ।” वापस आने के बाद मैंने कहा रज़िया, अच्छा हुआ तुम्हारे रहने से मैं आज वहां जा पायी, निशा बेचारी की हालत बहुत ख़राब थी अंदर से टूट गयी है। “दीदी आप क्या आपके घर काम करने वाली निशा के घर गईं थी? आप दामू नगर बस्ती में गयीं थी हाय अल्लाह! मैं सोची आप अपनी किसी फ्रेंड निशा से मिलने गये होगे।” बेहद आश्चर्यजनक मुद्रा में वो भावुकता से रूआँसी हो गयी। मैंने कहा रज़िया क्या हुआ “मैंने कौन सा महान काम कर दिया, अक्सर उसके सुख दुःख में जाती रही हूँ मैं, आखिर 16 साल से है वो मेरे साथ, बिल्कुल परिवार की सदस्य जैसे है। और फिर तुमने ही तो कहा दुनिया से क्या ले के जाना है। क्या मेरी अज़ीज़ दोस्त के घर यही दुःख आता तो मैं नहीं जाती? फिर निशा को सांत्वना देने कैसे न जाऊं? वो मेरी बात सुनती रही और कहने लगी दीदी काश! मैं आपके यहाँ काम करती, तीन महीने पहले मेरे पिता जी गुज़ारे और एक मैडम ने मुझे सांत्वना देना तो दूर ठीक से पूछा तक नहीं. मैंने उसे समझाया रज़िया तुम निराश मत हो दुनिया में भांति भांति के लोग होते हैं, हम इस सच्चाई को समझना है पर ईश्वर ने हमें जिन नेमतों से नवाजा है उसका खूबसूरती से इस्तेमाल करते हुए अच्छे सच्चे दिल के साथ जीना है. अभी अभी कोरोना काल ने अमीर ग़रीब सबको एक ही धरातल पर ला खड़ा किया था, कितने ही पैसे वाले हों कोई अपने प्रियजनों को नहीं बचा सके और फिर भी हम अहंकार से भरे किसी तरह के भेदभाव की भावना के साथ जियेंगे तो फिर भगवन भी कुछ नहीं कर सकते। और अहंकार के साथ जीवन पतन की ओर मार्ग प्रशस्त करता है उत्थान और आनंद की ओर कदापि नहीं।
– शशि दीप ©✍
विचारक/ द्विभाषी लेखिका
मुंबई
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