अवसरवादिता से परे निःस्वार्थ भावना की खुशबू फैले!

मैंने देखा है दुनिया में अवसरवादिता इतनी बढ़ गयी है कि लोगों के अंदर ज़रा भी संकोच या शर्मिंदगी नहीं होती जब वे स्पष्ट रूप से जता देते हैं कि उन्हें साधारण मानवीय व्यहारिकता से कुछ लेना-देना नहीं है बस इस हाथ ले उस हाथ दे। राजनीति या व्यापार में ये आम बात है, कारण समझ भी आता है पर अपनी साधारण जीवन शैली में, सामाजिक सरोकार के कार्यों में, मुहिमों में या समाज हित के लक्ष्यों के प्रति अपनी सहभागिता या सहयोग करने में क्या अदला बदली? मतलब आप किसी के फायदे का कुछ कर रहे हो तो उस समय या कुछ दिन तक वे आपका खूब महिमा मंडन करेंगे, आपके कुछ कामों में अपनी दिलचस्पी जतायेंगे, मित्रता बढ़ाने की फिराक में रहेंगे फिर जैसे ही वो मुद्दा समाप्त हुआ तुम कौन मैं कौन। हालांकि व्यक्तिगत तौर पर मुझे लोगों की इस तुच्छ मानसिकता पर सिर्फ हंसी आती है फ़र्क बिल्कुल नहीं पड़ता क्योंकि कुछ प्रतिष्ठित संस्थाओं में सूत्रधार की भूमिकाओं में रहते हुए अपने भीतर से अदला-बदली, प्रतिस्पर्धा, स्वार्थान्धता जैसे प्रतिकारक व अति महत्वकांक्षी तत्वों को तिरोभूत करना अति आवश्यक था। फिर नेटवर्किंग में रहते हुए अलग-अलग व्यक्तित्वों द्वारा मानव हित, समाज हित पर किये गए प्रयासों/ कार्यों के लिए उन्हें सम्मानित करने के लिए, सराहने के लिए अपने विवेक का इस्तेमाल करते हुए मुझे लगता है ऐसे भाव अपने उच्च संस्कार का हिस्सा है। नि: स्वार्थ भाव से किसी की मदद करना, तन, मन और वचन से स्वयं को ईश्वर का निमित्त मात्र मानते हुए दूसरे के कल्याण के लिए/समाज हित में तत्पर रहना स्वयं इतनी बड़ी आंतरिक शक्ति है कि उसके रहते किसी अन्य प्रेरणा की आवश्यकता ही नहीं रहती। कई बड़ी से बड़ी उपलब्धियाँ भी इसी भाव में अडिग रहते हुए अर्जित होती जाती है। संत कबीर ने सच ही कहा था

शीलवंत सबसे बड़ा, सब रत्नन की खान।

तीन लोक की संपदा, रही शील में आन।।

पर अधिकतर लोग इस गूढ़ सच्चाई और इस विशेष ईश्वरीय शक्ति का भान किये बिना कुछ पाने, और ज्यादा से ज्यादा बटोरने की दौड़ में रहते हैं इसलिए जहाँ उनका फायदा दिखा वहां साथ हो लिए फिर इकलियर चाॅकलेट की तरह कुछ जीत लिए, खुश हो लिए, मन में कोई उद्देश्य जैसा है ही नहीं। मेरा मानना है कि समाज सेवी कहते हो तो अवसरवादी व्यवसाय करना छोड़ दो, जलना कुढ़ना छोड़ दो, क्योंकि मेरा मानना है इस तरह की मानसिकता से आपको कभी भी आत्मिक संतुष्टि नहीं मिलेगी बल्कि ईर्ष्या, प्रतिस्पर्धा से अंदर हमेशा एक फ़्रस्ट्रेशन रहेगा। यहां तक मैंने कई लोगों को फायदा-घाटा का गणित लगाते पूरी तरह अन्ततः हताश होकर खुद को आइसोलेट करते भी देखा है। दुर्भाग्य से वे समझ नहीं पाते जो व्यक्ति सेवा में सच्चे मन से लगा है वह वास्तव में समाज के सुंदर निर्माण में अपनी अहम भूमिका का निर्वहन कर रहें हैं। इससे बच्चों में भी सेवा-भाव का विकास होता जाता है जो कि देश के भविष्य के लिए अत्यंत आवश्यक है सभी अभिभावकों का दायित्व है कि वे स्वयं बच्चों के सामने अपने आचरण/व्यवहार से ऐसा उदाहरण प्रस्तुत करें जिसे देखकर बच्चे उच्च मानवीय गुणों के धारक व प्रवर्तक रहें सेवा भाव का संस्कार पैदा हो। अहं भाव पूर्णत: समाप्त होकर उसके लिए व्यक्तित्व निर्माण व आध्यात्मिक उन्नयन का मार्ग प्रशस्त करे। अच्छी परम्पराओं का शंखनाद हो, उनकी पुनरावृत्ति हो व एक-दूसरे के प्रति प्रेमभाव से सामाजिक एकता व भाईचारा प्रगाढ हो। सेवा कार्यो में अवसरवादिता से परे, निःस्वार्थ भावना की खुशबू फैले व दुनिया में उत्तम जीवन मूल्यों की स्थापना हो।

 

शशि दीप ©✍

विचारक/ द्विभाषी लेखिका

मुंबई

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