वसुधैव कुटुम्बकम को आत्मसात करने वाले हम भारतीय
ईश्वर कृपा से जब हम प्रतिदिन आँखे खोल पाते हैं और एक नया सवेरा देखते हैं तो परवरदिगार का शुकराना करना कभी नहीं भूलना चाहिए, क्योंकि अगले ही पल क्या हो किसी को तनिक भी ज्ञात नहीं। इस सच्चाई का प्रमाण हमें अक्सर किसी न किसी रूप में मिलता रहता है। वैसे तो मोटे तौर पर सबको इस बात का भान होता है कि एक न एक दिन सबको दुनिया से जाना ही है पर फिर भी इंसानी प्रवृत्ति ऐसी होती है कि सांसारिक प्राथमिकताओं में मशगूल वह, दुनिया में अपने अस्थाई प्रवास के बारे में गंभीरता से नहीं सोचता और न ही पल-पल मुस्तैद रहता। पर जैसे ही हमारे समक्ष कोई घटना घटित होती है हम विचलित हो जाते हैं। जीवन मृत्यु के रहस्य को बार-बार समझने की कोशिश करते हैं। हर घटना की तह तक जाते हैं, उन परिस्थितियों में स्वयं को रखकर कल्पना करते हैं और हमारा दिल दहल जाता है। एक हँसता-खेलता परिवार दूसरे ही पल गम में डूब जाता है, ईश्वर के निर्णय को स्वीकार करने के अलावा दूसरा कोई विकल्प ही नहीं रह जाता।
उदाहरण के लिए अभी दो साल के लंबे अंतराल के बाद, कोरोना से उबरकर चहुँ ओर नवरात्री की रौनक थी। पूरे देश में उत्सव, आस्था, भक्ति व समर्पण का वातावरण था, ऐसे में हम सब भी नवरात्री विभिन्न अनुष्ठानों में व्यस्त थे कि बीच में छठे दिन हमने अपने समक्ष एक बेहद दर्दनाक मौत देखा। हमारे मोहल्ले के एक शुरूवाती अधेड़ उम्र के नौकरीशुदा पुरुष की अर्थी उठते देखे, जिन्हें कोई बीमारी नहीं थी। जिनकी पत्नी पिछली शाम ही हमारे साथ आरती कर रही थी, खुशियां मना रही थी प्रसाद बांट रही थी, जिनका किशोर बेटा निश्चिन्त अपने काम में लगा था। और दूसरी सुबह एक विशाल जन समुदाय उस परिवार के दुःख के साक्षी रहे। वसुधैव कुटुम्बकम को आत्मसात करने वाले हम भारतीय परिवार के बाद समाज का हिस्सा होते हैं ऐसे में अपने आस-पास के लोगों के दुःख में खड़े होना हमारा इंसानी फर्ज बन जाता है। अतः उत्सव को शोक में तब्दील होते देख चेतना का झकझोर जाना स्वाभाविक है। ये तो हुआ मेरे व्यक्तिगत अनुभव का उदाहरण और ऐसी न जाने कितनी मौतें होतीं हैं, हर जगह अलग-अलग मंज़र होता है।
ईश्वर ने हमें एक समय “सीमा” निर्धारित करके ही यह अस्तित्व प्रदान किया है जिसके तहत ऊपरवाले को हमारे माध्यम से निश्चित उद्देश्य पूरा करना है। इसीलिये जितने दिन का दाना पानी लिखा है यहाँ, उतने ही दिन सब रह सकते हैं उसके बाद एक क्षण भी रहना असम्भव है। इसलिये समय सीमा का ध्यान रखते हुए हमें वक्त को बेफिजूल के कामों में बरबाद नहीं करना चाहिये अन्यथा पछतावा होता है। ध्यान रहे, रात्रि पहर सोये जो गहरी नींद में तो दिन कितना करीब है आँख खुले न खुले यह हमें ज्ञात नहीं, पर जागने के बाद दिनचर्या अनुशासित रखना यह तो हमारे हाथ में है। अपने कार्यक्षेत्र में मंजिल कितना करीब है, यह हमें बिल्कुल ज्ञात नहीं; पर पूरी लगन से कितना मेहनत करना है, यह तो हमारे हाथ में है।
जीवन का अंत कितना करीब है, यह हमें ज्ञात नहीं है; पर जीवन कैसे जीना है, यह तो हमारे हाथ में है। ईश्वर हम सबको सद्बुदधी प्रदान करे।
- – शशि दीप ©✍
- विचारक/ द्विभाषी लेखिका
- मुंबई
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