आधुनिक भारत का बदलता स्वरूप समाज की नवीन अवधारणा को जन्म दे रहा है । भारतीय संस्कृति के बदलते नवीन आयाम एक आधुनिक समाज को जिस प्रकार स्थापित कर रहे हैं निसन्देह वह समाज के परम्परागत ढाँचे में आमूल चूल परिवर्तन लाकर एक ऐसे समाज को कायम करेंगे जो पुरातन काल से भारत में प्रतिबंधित रहा है या यह कहें कि जिसे भारतीय परम्पराओं की नज़र में समाज विरोधी माना जाता रहा है । वर्तमान परिवर्तन के लिए समाज से ज़्यादा न्यायलयों की महत्ती भूमिका से इंकार नही किया जा सकता ।जिन्होंने भारतीय संविधान के प्रकाश में ऐसे ऐसे निर्णय सुनाये जिनके दूरगामी परिणाम समाज के लिए ,परम्पराओं, मान्यताओं के लिए अपना अलग मुकाम रखते हैं और उन निर्णयों के आधार पर भारत में एक नए समाज, नये वातावरण का निर्माण हो रहा है।
भारत में पुरातन काल से अप्राकृतिक यौन सम्बन्ध, जारता ,व्यभिचार और देह व्यापार को अनैतिकता और समाज विरोधी माना जाता रहा है और हर युग में इन को अपराध मानकर अपराधी को दंडित भी किया जाता रहा है।इतिहास गवाह है कि इन अपराधों को यदि हिन्दू संस्कृति ने अनैतिक माना और राजाओ ने दण्डित किया वहीँ मुस्लिम मान्यताओं के आधार पर मुसलमान शासकों ,मुगलों ने भी इस अपराधों को घृणित मानकर कठोर दंड का प्रावधान किया ताकि समाज में यह विकृति नष्ट हो ।
देश की आज़ादी के बाद से देश संविधान के प्रकाश में चला और समाज ने आधुनिकता का आवरण जिस तेज़ी से ग्रहण किया वह किसी से छिपा नही ।परन्तु सामाजिक परम्पराओं को न्यायालयों ,समाज द्वारा लगातार संरक्षित किया ।परन्तु पिछले एक दशक में ऐसे कई मामले हमारे सामने आये जिसमे न्यायलयों द्वारा दिए गए निर्णयों ने समाज में एक नए आयाम को जन्म दिया ।
आप्रकृतिक यौन सम्बन्ध(377भादवि) ,जारता(497 भादवि) पर माननीय न्यायालयों द्वारा दिए गए निर्णयों ने समाज को एक नया स्वरूप प्रदान किया ।कल तक आप्रकृतिक यौन सम्बन्ध(377भादवि) ,जारता(497 भादवि) को अपराध माना जाता था न्यायलयों के द्वारा दी गई व्यवस्थाओं के बाद अब वह अपराध नही रहे ।निसन्देह न्यायलयों के द्वारा भारतीय संविधान और उसमें माइक अधिकारों,स्वतंन्त्रताओ को दृष्टिगत रखकर यह व्यवस्थाएं प्रदान की परन्तु सामाजिक आधार पर यह ऐसी व्यवस्थाएं थी जिनको हमारा समाज ,हमारी संस्कृति स्वीकार नही करती।परन्तु न्यायलयों के निर्णय सर्वमान्य होते हैं फलतः सबने स्वीकार किए ।अब एक और नया मामला सामने आया वह है बॉम्बे हाई कोर्ट का आदेश जिसमे देहव्यापार को अपराध नही माना गया। बॉम्‍बे हाईकोर्ट में सुनवाई के दौरान जस्टिस पृथ्वीराज चव्हाण ने कहा कि इममॉरल ट्रैफिकिंग कानून 1956 का मकसद देह व्यापार को खत्म करना नहीं है।

क्या है मामला :-

माननीय बॉम्‍बे हाईकोर्ट ने एक मामले की सुनवाई के दौरान अहम टिप्‍पणी की कि देह व्‍यापार में शामिल होने के आरोप में पकड़ी गईं तीन युवतियों से जुड़े मामले में हाईकोर्ट ने तीनों को सुधार गृह से रिहा करने के आदेश दिए। साथ ही हाईकोर्ट ने मामले की सुनवाई के दौरान कहा क‍ि किसी भी महिला को अपना पेशा चुनने पूरा अधिकार है।

जस्टिस चव्‍हाण ने सुनवाई के दौरान यह स्पष्ट किया है कि संविधान के तहत प्रत्येक व्यक्ति को एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने और अपनी पसंद की जगह पर रहने का पूरा अधिकार है।

बॉम्‍बे हाईकोर्ट में सुनवाई के दौरान जस्टिस पृथ्वीराज चव्हाण ने कहा कि इममॉरल ट्रैफिकिंग कानून 1956 का मकसद देह व्यापार को खत्म करना नहीं है. इस कानून के अंतर्गत ऐसा कोई भी प्रावधान उपलब्‍ध नहीं है, जो वेश्यावृत्ति को अपराध मानता हो या देह व्यापार से जुडे़ हुए को दंडित करता हो. इस कानून के तहत सिर्फ व्यवसायिक मकसद के लिए यौन शोषण करने और सार्वजनिक जगह पर अशोभनीय कार्य करने को दंडित माना गया है।
निसन्देह बॉम्बे हाई कोर्ट के आदेश दूरगामी परिणाम पीड़ित या सताई हुई महिलाओं के लिए अपनी आजीविका के लिए परेशान महिलाओं के लिए वरदान है जिनको देह व्यापार में पकड़े जाने पर पुलिस की प्रताड़नाओं का सामना करना पड़ता रहा है।परंतु क्या यह आदेश समाज को यह सन्देश नही दे रहा कि भारतीय मान्यताओं, संस्कृति अनुसार वह देह व्यापार जिसे समाज अपराध मानता आ रहा था वह अब अपराध नही रहा है। विषय गम्भीर है और समाज के लिए चिंतनीय है आखिर हम जा किस और रहे हैं ।
अब समाज उसकी मान्यताये ,संस्कार नाम के भारी भरकम शब्द बेमानी हो गए है ?क्या हम अब तेज़ी से पाश्चात्य सभ्यताओं को आत्मसात करके एक ऐसे समाज की अवधारणा करने लगे हैं जिसके कोई आदर्श नही कोई संस्कार नही।आधुनिक समाज की भांति स्वछंद जीवन जीना ही हमारा ध्येय हो गया और और सारे आदर्श शने:शने: अपना अस्तित्व खोते जा रहे हैं।
सैयद खालिद क़ैस-@khalidqais786