हिंदी क्यूँ?

 

हम स्वप्न द्रष्टा हैं l सपने बुनते हैं l उन ख़्वाबों की ताबीर करने के लिए, हमारे इन सपनों की भाषा वही है, जो हमारी रूह संग सम्बद्ध है l प्रथम भाषा और विशेषकर जब हिंदी की बात आती है तो बात और भी व्यापक हो जाती है क्यूँकि कहने की आवश्यकता नहीं कि ये एक विशाल जनसंख्या की आत्मा को बाँधती है l संस्कृति और उसके विविध आयामों को श्रृंखलाबद्ध करती है l संप्रदाय, धर्म, जाति, पंथ से ऊपर उठकर l यद्दपी औपनिवेशवादी छाप ने पूर्वाग्रह सहेज रखे हैं, जो स्पष्ट हैं l

 

हिंदी भाषा में अभिव्यक्ति को लेकर कई जगहों पर विचित्र संवादों और सवालों का सामना करना पड़ा l ” हिंदी में लिखतीं हैं?” “उतने पाठक नहीं l”कईयों को क्लिष्ट शब्द समझ नहीं आते और कभी कभी सरल भी l” मुश्किल शब्द समझ नहीं आते l” या फ़िर ” मज़ा नहीं आता l” किन्तु, ये सारे पूर्वाग्रह मुझे हिंदी लेखन से दूर नहीं कर पाए l न ही कर सकते हैं l मैं सहज हूँ l अभिव्यक्ति सशक्त होती है l विकृत मानसिकतायें डिगा नहीं सकतीं l

 

विस्तृत – व्यापक भाषा, जो विगत ‘ गंगा – जमुनी तहज़ीब’का वाहक रही वो गतिमान है क्यूँकि सपनो में बोली जाती है और यथार्थ में भी l वस्तुतः जितनी भी भाषाएँ हम जान सकते हैं हमें सीखनी चाहिए l अंतराष्ट्रीय भाषा अंग्रेजी, जो पूरे विश्व को जोड़ने का कार्य करती है, उसमे पारंगत हो जाना अत्यावश्यक है, साथ ही, ग्लोबल एवं तकनीक की भाषा होने के कारण इसमें रम जाना आज अत्यंत ही सहज और सरल हो गया है l लगभग प्रथम भाषा की ही तरह l लेकिन मातृभाषा हमारी सोच,समझ,सृजनात्मक्ता – रचनात्मकता और कल्पना की भाषा होती है l और हिंदी एक बड़े जनमानस की मातृभाषा होते हुए समाज को जोड़ती है l ये एक अलग प्रसंग है कि भारत की एक बड़ी आबादी जो कम सामर्थ्य है, गाँवों या छोटे शहरों की निवासी या महनगरों में रहकर भी बुनियादी आवश्यकताओं से परे ख़ुद को पाती हुई, संघर्षरत,शिक्षा से दूर है,उसके लिए शिक्षा और ज्ञानार्जन दूर की नहीं बहुत दूर की गोटी है और आशा है यद्दपी क्रन्तिकारी रूप से नहीं किन्तु क्रमशः ये ज़रूर संभव होगा l

 

मातृभाषाओं और विशेष तौर पर जब हिंदी की जब बात आती है, लगभग प्रत्येक व्यक्ति को ये अपने परिवार द्वारा हस्ताँतरित होती है l कमोबेश प्रत्येक व्यक्ति,जिसने इसे विरासत में प्राप्त किया है,इसमें पारंगत होता ही है l लेकिन, अंग्रेजी को लेकर पूर्वाग्रह सर चढ़कर बोलता है l पहले भी था और अब भी है l बात हिंदी में करनी,ख़्वाब इसी में देखने, खाना, सोना, उठना – बैठना सब इसी में l लेकिन साहित्यिक स्रोतों को पढ़ना, स्कूल की प्रारंभिक शिक्षा बच्चों को देनी हो तो औपनिवेशिक भाषा का सब्ज़ बाग़ ही नज़र आता है l इसे विवशता कह लें पूर्वाग्रह,पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव या न समझ में आना या फ़िर सबका ‘सम्मिश्रण’ l ये ‘सम्मिश्रण’ हमेशा नज़रों को धुंधला कर जाता है l वास्तव में ये एक विरोधाभास है l हम अपनी चाहत से इसपर काम कर सकते हैं l हिंदी के प्रसार – प्रसार से जुड़कर, इसे सही मायनो में ख़ुद से जोड़कर, अपनाकर l

 

वस्तुतः किसी भी भाषा की समृद्धि का काम उस से जुड़े साहित्यकारों और विद्वानों के द्वारा संपन्न होता है l लेकिन दुर्भाग्यवश, साहित्यिक वर्ग में बड़े पैमाने पर गुटबाजी और आपसी मतभेद विद्द्मान हैं l इस से हिंदी का क्रमशः नुकसान हुआ और हो रहा है l

 

हिंदी भाषा में पढ़ना, लिखना और बोलना आज भी दोयम दर्जे की चीज़ मानी जाती है l हालांकि, बड़े पैमाने पर कला, संस्कृति, दर्शन, फिल्मों इत्यादि के माध्यम से संचार के तमाम इलाकों में इसकी बढ़त ने अपनी व्यापक उपस्थित दर्ज करायी है बल्कि बढ़ायी है l विशेष तौर पर सेल – फोनों के द्वारा l

 

हमारी भाषा हिंदी की उन्नति का प्रश्न प्रत्यक्ष रूप से सामाजिक – सांस्कृतिक, आर्थिक – राजनीतिक मूल्यों से जुड़ा है l अन्य भारतीय भाषाएँ भी इसी वर्ग में आती हैं l औपनिवेशिक पूर्वाग्रह, मतभेद और गुटबाजी से निकलना अहम है l

 

– सकीना अफ़रोज़