पूर्वकल्पित भावनाओं से ग्रसित समाज!

जब कभी हम किसी पारिवारिक या सामाजिक व्यवस्था में मुख्य भूमिका निभाते हैं तो विभिन्न गतिविधियों मुहिमों या समारोहों के दरम्यान जो सबसे बड़ी चुनौती होती है वह है विभिन्न विचारों, प्रस्तावों, सुझावों व प्रतिक्रियाओं का सकारात्मक तरीके से सामना करना। और बहुमत पर गौर करना फिर अंत में वो निर्णय लेना जो ज्यादा से ज्यादा लोगों के हित में हो। उस वक्त इस पहलू को भूलना आवश्यक है कि किसी भी तरतीब के बाद लीडिंग अथॉरिटी को व्यक्तिगत रूप से क्या हरजाना भुगतना पड़ सकता है। अक्सर ऊर्जा की बहुत मात्रा विभिन्न विचारों को सुनने और उन पर मंथन करने में ही व्यय हो जाता है बाकी रही सही ऊर्जा ही आगे की योजना के निष्पादन में काम आ पाती है।

उदहारण के तौर पर अभी 2 दिन पूर्व हमारे विशाल हाउसिंग सोसाइटी में 5 दिन का गणेश उत्सव संपन्न हुआ जिसमें सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया गया रहवासियों ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया। कार्यक्रम सफलतापूर्वक चला लेकिन लीड रोल में रहते हुए मुझे क्या व्यक्तिगत सीख मिली वो आगे की रणनीतियों में बेहद उपयोगी है। हर नयी सोच, योजना या कार्यक्रम मनोरंजन व समाज कल्याण के साथ-साथ जहन में ढेर सारी नसीहतें छोड़ जाती हैं। मुख्य भूमिका में होने के कारण, सहभागियों को प्रोत्साहित करना व कार्यक्रम के अंतर्गत समाहित सामग्रियों की समीक्षा करना, अनुमोदन करना तथा सबके साथ प्रेम और सद्भावना के साथ पेश आना एक चुनौती भरा मसला होता है क्योंकि सब तरह से अच्छे से अच्छा संयोजन के बाद भी अगर स्टेज में कोई बोरिंग प्रस्तुति दे रहा हो, जैसे सूक्ष्म मामले का भी इल्ज़ाम ऑर्गनिज़ेर्स के सर आता है। दूसरी बात सच्चाई और ईमानदारी के धारक बहुत कम होते हैं अधिकतर लोगों की मनोवृत्ति स्वार्थान्धता, असत्य, छल-कपट व धूर्तता पूर्ण होती है इसलिये ऐसे वातावरण में विरले ही आपको खिले कमल के रूप में पहचान पायेंगे, बाकी सब आपको कीचड़ ही समझेंगे इसलिए आपके ऊपर भी इन्हीं पूर्वाग्रही धारणाओं के कारण झूठे आरोप लगेंगे। कई बार कई सारी गलतफहमियां भी हो सकती हैं लेकिन सत्याचरण का पालन करने वाला अपनी सीधी-सटीक बातचीत द्वारा ऐसे झूठ व गलतफहमियों को फौरन समाप्त करने की कला में निपुण होता है। दुनिया तो “जैसी बहे बयार, पीठ पुनि तैसी कीजै” के सिद्धांत पर चलती है, पर जो लोग शीलवान होते हैं वे अपने अंतरात्मा की अनुभूतियों का पालन करते हैं वे विचलित नहीं होते। ये तो हुई एक छोटे से आयोजन की बात, लेकिन यही सिद्धांत यदि राष्ट्र निर्माताओं को ठीक से समझ आ जाये, वे गंभीरता से विचार करें तो समाज को पूर्ण विनाश से बचाया जा सकता है। समस्त मानव समाज को इस संस्कृत सूक्ति में निहित गूढ़ मंत्र को आत्मसात करने की आवश्यकता है।
यथा चित्तं तथा वाचो यथा वाचस्तथा क्रिया।
चित्ते वाचि क्रियायां च साधूनामेकरूपता॥
अर्थात जैसा चित्त वैसे वचन, जैसे वचन वैसे क्रिया। साधु प्रवृत्ति के लोगों के चित्त, वचन व क्रिया में एकरूपता होती है। ऐसी सूक्तियों से प्रेरणा लेकर सामाजिक कटुता, दुर्भावनाएं, अविश्वास के वातावरण को कुछ हद तक सुधारा जा सकता है और एक नवीन समाज निर्मित की जा सकती है जहाँ लोग सच्चाई ईमानदारी जैसी सर्वोत्त्तम निति की छाया तले प्रेम, सद्भावना व मैत्री के साथ रहें व सामूहिक भलाई के लिए कार्य करें। बुद्धि विवेक के स्वामी गणपति बप्पा की कृपा हम सब बनी रहे!

शशि दीप ©✍
विचारक/ द्विभाषी लेखिका
मुंबई
shashidip2001@gmail.com