रक्षाबंधन के पवित्र धागे में आत्मरक्षा, धर्मरक्षा और राष्ट्ररक्षा के तीनों सूत्र संकल्पबद्ध!

 

हमारे देश की अत्यंत गौरवशाली परंपरा रही है जिसमें त्यौहारों का विशेष महत्व है। इसीलिए आधुनिक प्रगति के साथ-साथ प्राचीन मान्यताओं व पावन पर्वों में निहित मूल तत्वों को सहजतापूर्वक संजोए हुए उन्हें अतिरिक्त नवीन व ट्रेंडिंग शैलियों के साथ मनाया जाता रहा है।

 

आज श्रावण पूर्णिमा का पावन दिन जिसे रक्षाबंधन त्यौहार के रूप में भाई-बहन के अटूट स्नेह का प्रतीक माना जाता है और उस पवित्र बंधन को सशक्त बनाये रखने के लिए प्रति वर्ष संकल्प पर्व के रूप में पूर्ण श्रद्धा भाव के साथ मनाया जाता है, वास्तव में आध्यात्मिक दृष्टिकोण से विश्व बंधुत्व को बढ़ावा देना मुख्य सार है। पारिवारिक स्तर में प्रेम प्रगाढ़ होने से अच्छा समाज निर्मित होता है और अच्छा समाज एक अच्छा राष्ट्र व विश्व में शांति व सद्भावना स्थापित करने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। आजकल न्यूक्लियर फैमिली कल्चर होने के कारण व लिंग समानता को ध्यान में रखते हुए सिर्फ बहन भाई को राखी बांधे ऐसा कोई ज़रूरी नहीं है, उस रूढ़िवादी मान्यता में आंशिक बदलाव लाते हुए आज दो बहनें भी एक दूसरे को रक्षा सूत्र बांधतीं हैं, बहनें भाभियों को भी लुम्बा बांधतीं हैं जिसमें मूल भाव भाई-बहनों के बीच प्यार व बंधन में प्रगाढ़ता सुनिश्चित करना व रिश्तों की पवित्रता की रक्षा करने का संकल्प करना है। इस अनमोल धागे में रिश्तों की हिफाज़त के साथ आत्मरक्षा, धर्मरक्षा और राष्ट्ररक्षा के तीनों सूत्र संकल्पबद्ध होते हैं। मनुष्य जाति अक्सर सांसारिक भोग-विलास में लिप्त, अपना विवेक खो बैठता है और ईश्वरीय प्रदत्त उत्कृष्ट मानवीय प्रवृत्त्तियों से विमुख हो जाया करता है उसी के कारण दुनिया में तमाम समस्याएं जन्म लेती है और परिवार, समाज, देश व दुनिया में विघटनकारी तत्वों का कारण बनता है। परिवार में द्वेष, आपसी मतभेद व कलह के उपरांत ही ऐसे विषैले तत्व समाज को दूषित करते हैं। मैं व्यक्तिगत तौर से एक संस्कारप्रधान परिवार से रही हूँ व माता पिता व बड़े भाईयों को इन आदर्शों पर जोर देते हुए साक्षी रहते हुए उम्र के इस पड़ाव तक पहुंची और आज वदुधैव कुटुम्बकम, सर्वधर्म समभाव व मानवता का जामा पहने लेखन, आध्यात्म, पत्रकारिता व समाजसेवा में रहते हुए कुछ बेहद उत्कृष्ट मानवीय सद्गुणों से लबरेज़ आत्माओं को बड़े भाइयों के रूप में पायी हूँ। जिसके लिए आज व प्रतिदिन ईश्वर के प्रति अनंत कृतज्ञता अर्पित करती हूँ। मैं किसी को भी भाई या भैया पुकारते हुए इस शब्द को सिर्फ एक औपचारिक बोलचाल में हल्के रूप में न लेते हुए सच्चे भाव से उसकी गरिमा पर जोर देने का स्वसंकल्प धारण करती हूँ, व संपूर्ण मानव समाज को भी इस दिव्य भाव का सम्मान बनाये रखने की गुजारिश करती हूँ। इस तरह इन महत्वपूर्ण त्योहारों में निहित सार को आत्मसात करके न केवल परम्पराओं का सम्मान किया जाना चाहिए अपितु व्यक्तिगत उन्नयन के साथ-साथ वृहद दृष्टिकोण से सार्वभौमिक हितकारिता का चिंतन भी किया जाना चाहिए।

 

शशि दीप* ©✍

विचारक/ द्विभाषी लेखिका

मुंबई

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