आध्यात्मिक व्यक्तित्व और वर्तमान परिवेश
समाचार से जानकारी मिली कि एक प्रसिद्ध धर्म गुरु व उनकी संस्था का सोशल मीडिया में प्रचार-प्रसार हेतु लाखों रुपये खर्च किया जाता रहा है। जिसे पढ़कर बेहद निराशा हुई, कि एक मान्यता प्राप्त धर्म गुरु जिनके इतने फोलोवेर्स हैं भला वे अपने प्रचार-प्रसार के लिए इतनी भारी रकम खर्च करने की इज़ाज़त कैसे दे सकते हैं? खैर इस समाचार के पीछे चाहे दस प्रतिशत भी सच्चाई हो तब भी बिल्कुल भी स्वीकार करने योग्य नहीं और उनके कट्टर अनुयायियों को अपने विवेक का इस्तेमाल करना चाहिए। धर्म ग्रंथों में कहा गया है हमें निःस्वार्थ भाव से ईश्वर के निमित्त अपने कार्यों का निष्पादन करना चाहिए बाकि स्वयं का प्रचार-प्रसार व परिणाम के मोह से बचना चाहिए। सीधी सी बात है बड़े-बड़े ज्ञानी महात्मा भी कहते आये हैं, शास्त्रों में भी सिद्ध किया गया है कि हम जो कुछ ब्रह्माण्ड को देते हैं वह ब्याज सहित किसी न किसी रूप में लौट कर आता ही है, भले देर ही सही। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी ऊर्जा संरक्षण का नियम है कि अनवरत, ऊर्जा के सिर्फ रूप बदलते जाते हैं वे नष्ट नहीं होते। ब्रह्मांड विनियम का भी यही एक सरल तरीका है कि व्यक्ति जो पाना चाहता है, उसे स्वार्थवश प्रचारित न करे बल्कि दूसरों को निस्वार्थ भाव से दें। सार्वभौमिक संदर्भ में आकर्षण का नियम भी कहता है कि समानता से समानता आकर्षित होती है। मतलब आप जो देते हैं, वही आपको वापस मिलता है।
12 साल से आध्यात्मिक रूझान रखते हुए, सरल आध्यात्मिक लेखन लिखते हुए ईश्वरीय कृपा से यह अदनी सी विचारक भी इस तथ्य से आश्वस्त हो चुकी है शायद इसीलिए मुझे कई पाठक/ प्रशंसक अक्सर पूछते हैं कि आपकी पहली किताब की सफलता का राज क्या है? आप दूसरों के कार्यों, उनकी सफलता, उनके व्यक्तित्व, कृतित्व का प्रचार-प्रसार इतने निःस्वार्थ भावना से कैसे कर लेते हो? क्या इस स्वार्थान्ध दुनिया में आपको प्रतियोगियों से भय नहीं लगता की आप पीछे हो जाओगे, वे आपको धकेलकर पीछे कर देंगे? इन सवालों का मेरे पास एक ही जवाब है “जिसे दूसरों की जश्न-ए-फ़तह ख़ुद की तरह मनाने की तालीम आती हो, जिसके दिल में समस्त आवाम के लिए सच्ची मोहब्बत हो, जिसे फायदा घाटा का हिसाब किये बिना नेकी करने की आदत हो, जो पूरे विश्व को एक परिवार मानता हो और जिसे सबको एक करने की नामुमकिन सी जिद्द हो; ‘उसकी तो रोज फतेह ही फतेह है, उसका हर दिन, हर पल खुशियों से लबरेज है; उसकी ज़िन्दगी, खुशियों की चाबी की मोहताज नहीं है!”
यदि व्यक्ति खुश रहना चाहता है तो दूसरों को खुश रखे और यदि प्रेम पाना चाहता है तो दूसरों के प्रति प्रेम की भावना रखे। यदि वह चाहता है की उसकी महिमा बढ़े, उसकी सराहना हो तो उसे अति विनम्र भाव से, अपने अंदर के अहंकार का त्याग कर बाहर देखना चाहिए, दूसरों के अच्छे कर्मों को निर्मल मन से परख कर उनकी महिमा बढ़ानी चाहिए, उनके अच्छे कर्मों की चर्चा करनी चाहिए। कहने का मतलब जो आप खुद करेंगे, जो आप खुद सोंचेगे वैसा ही आप पाते जाते हैं अर्थात फल हमारी सोच पर निर्भर करता है। इसीलिए महान व्यक्तित्वों में इतना आकर्षण होता है कि लोग अपने आप उनके चारों ओर एकत्रित हो जाते हैं उनकी आभा तथा उनके सद्गुण सहज ही साधारण कोटि के व्यक्तियों का मन मोह लेते हैं। और इतनी पुख्ता सिद्धिकरण के बावजूद अगर कोई व्यापारी नहीं बल्कि धर्मगुरु अपना प्रचार प्रसार करे तो यह मानसिक गरीबी मालूम पड़ता है।
– शशि दीप ©✍
विचारक/ द्विभाषी लेखिका
मुंबई
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