आंतरिक गुरु तत्व का बोध!

{ गुरु पूर्णिमा (13 जुलाई) पर विशेष}

 

एक बार एक गांव में एक मूर्तिकार ने कुछ देवी, देवताओं की सुंदर मूर्तियाँ बनाई और उसे शहर में अच्छी कीमत पर बेचने के लिए अपने गधे पर लादकर निकल पड़े। अब शहर की ओर जाते हुए रास्ते में, भगवान की मूर्तिया देखते ही भीड़ इकट्ठी हो जाती थी और लोग मूर्ति के सामने झुक कर प्रणाम भी करते। वैसे भी हमारे देश में भगवान के प्रति श्रद्धा भाव अधिक हैं, इसलिए ऐसा होना स्वाभाविक धार्मिक भावना है। अब इस परिदृश्य में लोग मूर्तियों का नमन करते तो गधे के सामने भी झुकते थे और इसलिए गधा अपने आप को विशेष समझने लगा व अपनी दुर्बुद्धि के कारण सोचता कि लोग उसकी सलामी ठोंक रहे हैं और वह अपने नए सम्मानित अवस्था के अभिमान से भरा हुआ था। शीघ्र ही मूर्तिकार मूर्तियाँ बेच कर वापस लौटने लगा तब गाँव को पार करते वक्त गधा सड़क के बीच में गर्मजोशी से स्वागत की उम्मीद बाँधे रूक गया। लेकिन किसी ने उसकी ओर ध्यान नहीं दिया। गधे ने अपमानित महसूस किया और चिल्लाने लगा इतना कि गांव वालों ने उसे खदेड़ दिया।

 

यहाँ जो गलती गधे ने की, वही आध्यात्मिक साधक व यश वर्धन करते हुए आगे अग्रसर होता जिज्ञासु करता है। जब हम अपने अंतरात्मा के गुरू की आवाज सुनकर ईश्वर कृपा से आत्म-साक्षात्कार, आत्म विकास के दिव्य मार्ग पर होते हैं, तब एक अद्वितीय प्रकाश हमारे अन्दर प्रवेश होता है और भीड़ में अलग ही नज़र आता है। लोग सम्मान भी करते हैं और कई नत मस्तक भी हो जाते हैं। लेकिन हमें यह सोचना चाहिए कि लोग हमें नहीं बल्कि उस दिव्यता की झलक के समक्ष झुक रहे हैं जो हमारी आभा में परिलक्षित होता है इसलिये इस सम्मान का श्रेय लेने हम कौन हुए ? वह तो केवल उस देवत्व को जाता है, हमें नहीं (सीमित अहंकार)। यदि हम खुद अपना श्रेय लेना शुरू करें तो हम झूठे अहंकार के आसमान में उड़ते रहेंगे।

 

इसलिए सांसारिक जीवन जीते हुए भी आध्यात्मिक जीवन शैली हो, रुझान हो तो मनुष्य के लिए उपलब्धि और अहंकार में संतुलन रखना आसान होता है। नहीं तो भौतिक जीवन में हम जितना अधिक उपलब्धि हासिल होता है उतना ही अधिक अहंकार बढ़ता है और आध्यात्मिक जीवन में जितना अधिक हम प्रगति करते हैं, उतना ही अहंकार हम अपने अंदर से बाहर निकालते हैं। तात्पर्य इतना सरल है आंतरिक गुरू तत्व विनम्रता विकसित करने में सहायक होता है जो अहंकार के ढाल के रूप में कार्य कर सकती है जो कि बिल्कुल आसान नहीं।

 

  • शशि दीप ©
  • विचारक/ द्विभाषी लेखिका
  • मुंबई
  • shashidip2001@gmail.com