दूसरों के व्यवहार से अप्रभावित अपने नैसर्गिक प्रकृति का निरंतर संवर्धन करना अति उत्तम
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पारिवारिक, सामाजिक प्राणी होने के नाते, हम अक्सर दूसरों के व्यवहार से प्रभावित होते रहते हैं और उसी के अनुसार हम उनके प्रति अपना व्यहवहार कायम करते हैं। वैसे भी व्यक्तिगत रूप से किसी से जुड़ने की बात आती है तो हम सामने वाले को अच्छी तरह देख परख कर, उनकी मानसिक, सामाजिक एवं पारिवारिक स्थितियां कैसी हैं यह सब ध्यान में रखते हुए ही मित्रता करते हैं पर सामान्य सामाजिक व्यवहार के लिए किसी के अन्दर जनरल एटीकेट्स हो तो सद्भावना बनाए रखने के लिए पर्याप्त है।
पारिवारिक स्तर में तो हमें शिष्टाचार ठीक न हो तो भी “नेकी कर दरिया में डाल” वाली बात को पूर्ण रूप से आत्मसात करना पड़ता है। मुझे अक्सर मेरे कुछ अज़ीज़ लोग ये कहते हैं कि, जब सामने वाले ने आपके साथ इतना ख़राब व्यवहार किया, या आपसे चिढ़ते हैं, जलते हैं फिर भी आप साथ सामान्य बने रहते हो, कट ऑफ क्यों नहीं करते? तो मेरा जवाब रहता है, सामने वाले की मंशा तो वही होगी, पर क्या मेरा प्रभावित होना पारिवारिक व सामाजिक प्रदूषण में इजाफ़ा नहीं करेगा?
कहने का मतलब हर रिश्ते के प्रति समर्पण भाव, बड़े हो या छोटे हमें अपना कर्तव्य निभाना है। सामने वाला फ़ोन करे न करे, हाल-चाल पूछे न पूछे, पारिवारिक ज़िम्मेदारियाँ उठाये या न उठाये हमें कोई शिकायत करनी ही नहीं है, बस अपना उनके प्रति जो कर्त्तव्य है वो निभाना है, ताकि रिश्ते की गरिमा बनी रहे भले ही एकतरफा प्रयास करना पड़े पर इसका फायदा ही है घाटा कुछ नहीं। सुधारने का प्रयास तो अक्सर विफल ही होता है अपने प्रियजनों को निरंतर सुधारने का प्रयत्न करना तो कभी भी गलती करने वालों की मदद नहीं करता इसलिये बस अपना ऊँचे चरित्र व आत्म नियंत्रण का परिचय देते हुए किसी भी प्रकार से कटुता की उत्पत्ति के दुष्चक्र को रोकने में समाज की भी भलाई है। ये तो हुई पारिवारिक स्तर की बात लेकिन सामाजिक स्तर पर भी बस यही फंडा अपनाना श्रेयकर है। खासतौर पर जब हम विभिन्न सामाजिक सरोकार से जुड़े हैं और एक मुख्य भूमिका का निर्वहन कर रहें हैं तो हमें पूर्ण निष्ठा के साथ अंतर्मुखी होना अत्यंत आवश्यक है, जिससे हमारा ध्यान दूसरों के आँखों के तिनके देखने के बजाय स्वयं की आँख का शहतीर साफ़ दिखाई दे और हम स्वामी विवेकानंद जी द्वारा कही बात “मनुष्य का अनुमान कभी भी उसकी त्रुटियों से नहीं लगाया जाना चाहिए, क्योंकि उसमें जो सद्गुण होते हैं वे उसके किन्तु उसकी त्रुटियाँ मानवता की सामान्य दुर्बलताएँ हैं, अतः उसके चरित्र के मूल्यांकन में उनका कोई महत्त्व नहीं।”
इस प्रकार हमें औरों के व्यवहार से खुद को प्रभावित करना और फिर स्वयं में कटुता के पेड़ को पल्लवित करना, जैसी दुर्भावनाओं से पहले उसके वृहद् परिणाम पर मनन चिंतन करना आवश्यक है जिससे हम शांतिपूर्वक अपने अनुकरणीय आदर्श व मधुर व्यवहार से दूसरों को प्रेरणा प्रदान कर सकते हैं।
– शशि दीप
विचारक/ द्विभाषी लेखिका
मुंबई
shashidip2001@gmail.com