हमारे मुखमण्डल से जो शब्द निकलते हैं !!!
इस बात में कोई दो मत नहीं कि कहीं भी बात करते वक्त अगर लहज़ा सरस व मधुर हो तो पारिवारिक, सामाजिक, व्यापारिक व दूसरे सभी क्षेत्रों में आपसी सम्बन्धों के साथ ही साथ हमारी जनप्रियता में लगातार इजाफा होता जाता है और जीवन में चहुंमुखी उन्नयन स्वाभाविक है। यह एक कालजयी सत्य सिद्ध हो चुका है कि वाणी में नियंत्रण करने में असफल होते ही दूसरी मुसीबतें घेर लेती हैं। वैसे तो निकटम सम्बन्धियों से अपने प्रतिदिन के वार्तालाप में हर वक्त वाणी में मिश्री घोलकर बात कर पाना संभव नहीं हैं हालाँकि कुछ अपवाद जरूर हो सकते हैं। लेकिन घर से बाहर कदम रखते ही अपने व्यक्तित्व की हर विधा को, अपनी आभा को बड़ी सावधानी से संभालना पड़ता है। इस बात की समझ वैसे तो सभी को होगी परन्तु फिर भी हम ज्यादा तवज्ज़ो नहीं देते। लेकिन अभी कुछ दिन पहले एक छोटी सी घटना ने मुझे इस पर बेहद गहराई से विचार करने का सुअवसर दिया।
हुआ यूँ कि मैं अभी पिछले हफ्ते करीब दो साल के लम्बे अंतराल के बाद कोरोना की मरणांतक परिस्थितियों से बचते-बचाते सिर्फ चार दिन के लिए अपने गृह राज्य प्रवास में थी। वहां मुझे एक साहित्यिक कार्यक्रम में आमंत्रित किया गया था इसलिए इस बहाने परिजनों से भी मिलने का एक सुअवसर मिल गया। अब इस प्रवास में जिस मुख्य काम के लिए मैं वहां गयी थी उस शहर में पहुँचना और खुद को मानसिक व शारीरिक रूप से दुरूस्त रखना मेरी पहली प्राथमिकता थी इसलिए साहित्यिक कार्यक्रम से पहले अन्य गतिविधियों के लिए समय दे पाने से सबको साफ़ इंकार कर दिया था। लेकिन जैसे ही कार्यक्रम संपन्न हुआ, एक के बाद एक रिशतेदारों से मिलने का सिलसिला शुरू हुआ।
मेरे हाथ में सिर्फ चार दिन थे इसलिए सिर्फ-और-सिर्फ आस पास के सभी परिजनों को एक नज़र देखने व कुछ मीठे बोल, बोल लेना ही मेरे लिए काफी था। इसलिए सख्त समय सारणी का पालन करते हुए तीन दिन में 21 रिश्तेदारों से मिलना हो चुका था और आखरी दिन को मैंने पूरा-पूरा अपने ससुराल के लिए संरक्षित रखा था। इसलिए चौथे दिन सुबह-सुबह निकल पड़ी लेकिन जब रास्ते में थी तभी एक और निकट संबधी का फ़ोन आ गया, कि रास्ते में उनसे भी मिल लूँ। शुरू में मैंने उन्हें प्रेम पूर्वक इंकार कर दिया लेकिन वे मुझे आत्मियता में बाँधने लगीं और मेरा भी भावनात्मक खिंचाव स्वाभाविक था। लेकिन मन में समय पर गन्तव्य पहुँचने का मेरा स्वयं का उपजाया हुआ तनाव, मुझे वहां जाने के लिए रोक रहा था। लगभग डेढ़ घंटे यह अंतर्द्वंद चलता रहा लेकिन दूसरे शहर से जहाँ से मेरे अग्रज आगे मेरे साथ चलने वाले थे वहां बड़ों के विचारों का पालन करना पड़ा, आत्मीयता तो वैसे भी सबसे मज़बूत कारण था ही इसलिए हम अन्तः वहाँ पहुँच ही गए, लेकिन जाने और बैठने का समय सिर्फ एक घंटा निश्चित किया गया। इस दरम्यान समय बचाने के लिए हम वहां के बच्चों के लिए कुछ चाकलेट इत्यादि भी नहीं खरीदा गया बल्कि हाथ में कुछ पैसे पकड़ा दिए गये। वहाँ पूरी आत्मीयता से स्वागत-सत्कार प्रेम बरसाया गया फिर अपने समय-सारणी का पालन करते हुए हम निकलने लगे और चप्पल-जूते पहन ही रहे थे, तभी मेरी रिश्तेदार ने मुझे उनका खूबसूरत छत दिखाने की इच्छा जताई, अब समय की इतनी कमी जहाँ मैं एक-एक मिनट को गिन रही थी वहां मैं छत देखने में 10 मिनट कैसे बर्बाद करती जबकि उसके बाद 2 घंटे की कार यात्रा और बची हुई थी।
अब मेरे मन के अंदर ससुराल समय पर पहुँचने का तनाव, इस बिंदु पर मेरी वाणी को नियंत्रित करने में असफल रहा और मैं उन्हें थोड़ा जोश में जवाब दे बैठी कि “दीदी यहाँ इंसानों से मिलने के लिए समय कम पड़ रहा है छोड़िए न छत कौन देखता है।” मैं जल्दबाजी में उनकी भावना को नहीं पढ़ सकी और हम वहाँ से प्रेमपूर्वक निकल गए। वहां से निकलने के बाद मैं तो बेहद आनंदित थी कि चलो एक और रिश्तेदार से मिलना हो गया जिनसे मिलना मेरी योजना के तहत असंभव लग रहा था। अब यात्रा के बाद जब मैं मुंबई वापस आ गई, तब दो दिन के बाद उन्ही का फ़ोन आया जहाँ मैंने छत देखने से इंकार कर दिया था। वे मुझसे प्रेम से पूंछने लगी कि क्या उस दिन उनकी किसी बात या व्यवहार से मैं आहत हुई जिसकी वजह से मैंने उनसे ऐसे स्वर में बात करके विदा लिया? अब मैं इस वाकये को सुनकर बेहद चौक गयी, मेरे लिए तो ये नयी बात थी कि मैंने अनजाने में ऊँचे स्वर से बोलकर किसी को एक झटका दे रखा है और वह पिछले तीन दिन से परेशान रही कि उन्होंने मुझे दुखी करके अपने घर से बिदा किया है। मैंने जोर से हंसकर उन्हें लगभग आलिंगन करने के भाव के साथ समझाया कि उनकी, मुझे दुखी करने की अटकलें बेबुनियाद है एक भी सही नहीं है, कृपया अपने अन्दर से वे सारी बातें निकाल कर कही बाहर फेंक दें। मैंने उन्हें विश्वास दिलाने के लिए कहा कि “आप सबकी आत्मीयता से अभिभूत हूँ मेरी वाणी नियमन में असमर्थता महज़ तनाव का प्रभाव था उसके अलावा कुछ भी नहीं।” वे बहुत भावुक हुई और खुद को मुझसे बात करने के बाद ही हल्का कर पाईं।
मैंने बाद में विचार किया किस तरह मेरा एक वाक्य किसी को विपरीत रूप से प्रभावित कर गया जबकि मेरा हृदय बिलकुल साफ़ था और सभी आत्मीयता से ओत-प्रोत थे। इस प्रकार यह समझना आवश्यक है कि हमारे मुँह से शब्द या वाक्य जिस लहज़े में निकलते हैं हम दूसरों को अपने मन की किवाडों में से झाँकने को आमंत्रित हैं और हम स्वयं भी विभिन्न प्रतिक्रियाओं से प्रभावित होते हैं।
शशि दीप,मुंबई