भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को पुलिस को भी समझना होगा
सैयद खालिद कैस
लेखक पत्रकार आलोचक विचारक
वर्तमान समय में भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर जिस प्रकार शासन प्रशासन और सत्ता के दबाव में पुलिस द्वारा हमला किया जा रहा है वह किसी से छिपा नहीं है। देश भर में निष्पक्ष पत्रकारिता हो या आलोचनात्मक टिप्पणी सरकार के इशारे पर पुलिस द्वारा जिस प्रकार आवाज को दबाने के लिए प्रयास किए जा रहे हैं वह निंदनीय है।
गौरतलब हो कि विश्वसनीय लोकतांत्रिक समाज सुनिश्चित करने के लिए मीडिया को अपने कर्तव्यों को सच्चाई और जिम्मेदारी से निभाना चाहिए परन्तु जब मीडिया अपनी जिम्मेदारी और कर्तव्यों का निर्वाहन करता है तो उसको दमनकारी नीति का सामना करना पड़ता है। देश में कई बार सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस पर ध्यानाकर्षित करते हुए तल्ख टिप्पणी की है।लेकिन सत्ता के संरक्षण में शासन प्रशासन और पुलिस जिस प्रकार का व्यवहार करती है वह असंवैधानिक होता है। देश की सर्वोच्च न्यायालय निष्पक्ष पत्रकारिता की रक्षा करती है वहीं सरकार सर्वोच्च न्यायालय के दिशा निर्देश के विपरीत आचरण करती है। जो चिंता का विषय है। इसी संदर्भ में गत दिनों कांग्रेस नेता और राज्यसभा सदस्य इमरान प्रतापगढ़ी के विरुद्ध एक मामले पर विचारण उपरांत सुप्रीम कोर्ट ने सत्ता के संरक्षण में पुलिस द्वारा बरते जा रहे व्यवहार पर नाराज़गी जताते हुए कहा कि देश में संविधान लागू होने के 75 साल बाद ‘भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ को कम से कम पुलिस को समझनी होगी। पुलिस को संविधान के अनुरूप आचरण अपनाना चाहिए लेकिन पुलिस खुद संविधान का पालन नहीं करती। सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस श्री अभय एस. ओका और श्री उज्जल भुइयां की पीठ ने मामले की सुनवाई के दौरान संविधान के अनुच्छेद-19 (1) (ए) के तहत भाषण और अभिव्यक्ति की आजादी के मौलिक अधिकार को संरक्षित करने के महत्व पर जोर दिया। पीठ ने कहा कि जब बात भाषण और अभिव्यक्ति की आजादी की बात आती है, तो इसे संरक्षित करना होगा। जस्टिस ओका ने कहा कि मुकदमा दर्ज करने से पहले पुलिस को कुछ संवेदनशीलता दिखानी होगी। उन्होंने कहा कि देश में संविधान लागू हुए 75 साल हो गए, पुलिस को न सिर्फ संविधान के अनुच्छेदों को पढ़ना और समझना चाहिए बल्कि भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी समझनी होगी।
गौरतलब हो कि सत्ता शासन ओर राजनेताओं के इशारे पर आलोचनात्मक टिप्पणी हो या अन्य कोई संदेश चाहे वह कार्टून की शक्ल में हो या कविता के रूप में जहां सत्ता ओर शासन के विरुद्ध टिप्पणी या आलोचना सामने आती है तो पुलिस बिना विवेक ओर प्रकिया का प्रयोग किए बिना अपनी शक्ति का दुरुपयोग करने से बाज़ नहीं आती है और मुकदमा दर्ज करने से पहले न तो संवेदनशीलता का उपयोग करती है और न ही प्रकिया का पालन करती है, नतीजा यह निकलता है कि पुलिस अपनी शक्ति का दुरुपयोग करके सीधे मुकदमा दर्ज कर लेती है। परिणामस्वरूप प्रकरण के विचारण उपरांत न्यायालय को हस्तक्षेप करना होता है और वादी याची को आवश्यक पीड़ा के बाद न्यायालय से उपचार तो मिलता है लेकिन उससे पूर्व सैकड़ों परेशानियों से गुजरना पड़ता है।
देश में सैकड़ों ऐसे मामले सामने आ रहे हैं जहां पुलिस शिकायतों की जांच या सच्चाई को जाने बगैर प्राथमिकी दर्ज करने में देर नहीं करती। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के बाद भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को पुलिस को भी समझना होगा। मात्र राजनेताओं की जी हुजूरी करने या दबाव की नीति के बल पर भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन करने से पुलिस को बाज आना होगा। भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए पुलिस को संविधान के अनुरूप आचरण अपनाना होगा ताकि जनमानस के संवैधानिक अधिकारों का हनन न हो पाए।