परवेज़ इक़बाल की क़लम से 

लोकतंत्र का आसान मतलब ही यही होता है कि “जनता खुद अपना शासक चुनती है” ज़ाहिर सी बात है कि जनता जिसे चुनने का हक़ रखती है उससे सवाल पूछने का भी हक़ रखती है..यहां चुनने का तातपर्य चुने हुवे जनप्रतिनिधि से है यानी वो चुनने के बाद वो सिर्फ अपने को वोट वालों को ही नहीं बल्कि आम मतदाता के प्रति जवाबदेह है…लेकिन वर्तमान दौर में लोकतंत्र की सबसे बड़ी विडंबना यही होती जा रही है कि सरकार से सवाल पूछना दूभर होता जा रहा है….जनता द्वारा सरकार से पूछे जाने वाले सवालों की क्या बिसात अब तो सरकार हाईकोर्ट के सवालों को भी नज़रंदाज़ कर उनके जवाब देना मुनासिब नहीं समझ रही है..हाल ही में म.प्र. हाईकोर्ट ने म.प्र. के सामान्य प्रशासन विभाग से जानकारी मांगी थी कि-“कितनी बार सरकार ने उसके(हाईकोर्ट) के आदेश की अवमानना करते हुए हाईकोर्ट द्वारा पूछे गए सवालों के जवाब नहीं दिए हैं”? जिस पर सरकार के अतिरिक्त महाधिवक्ता विशाल मिश्रा ने अदालत में जवाब देते हुए बताया कि-‘तकरीबन एक हज़ार से ज़्यादा मामलों में प्रदेश सरकार ने हाईकोर्ट द्वारा पूछे गए सवालों के जवाब नहीं दिए हैं’। ये तो सिर्फ म.प्र. हाईकोर्ट ओर प्रदेश सरकार के अनुमानित आंकड़े हैं यदि इनमे सम्पूर्ण प्रदेशों सहित केंद्र सरकार और सुप्रीम कोर्ट सहित अन्य सभी हाईकोर्ट और निचली अदालतों/न्यायलयीन संघठनों/जांच आयोग या संस्थानों के आंकड़े जोड़ दिए जाएं तो ये आंकड़ा कितना बड़ा हो सकता है इसका अंदाज़ा सहजता से लगाया जा सकता है..
अब इसे लोकतंत्र की विडम्बना कहें या हमारे सत्ताधीशों का पाखण्ड कि एक ओर जहां देश मे लोकतंत्र को मजबूत और पारदर्शी बनाने के लिए ‘सूचना के अधिकार’ को कानूनी रूप दिया जाता है वहीं सवालों से सरकार/सरकारी कारिंदे असहज/विचलित और कुपित (क्रोधित) हो जाते हैं… सवाल तो यह भी उठता है कि जो सरकारी कारिंदे उच्च न्यायलय द्वारा पूछे गए सवालों पर गम्भीरता नहीं दिखाते वो आम जनता द्वारा पूछे गए सवालों के प्रति कितनी गम्भीरता दिखाते होंगे या ज़िम्मेदारी से जवाब देते होंगे ?
इस मामले में सरकार की कथनी और करनी के अंतर का आलम यह है कि “सूचना के अधिकार” की दसवीं वर्षगांठ पर दिए भाषण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कहते हैं कि-“RTI is not only about the right to know but also the right to question. This will increase faith in democracy”..वही मोदी जी या उनकी सरकार के कारिंदे उन पर उठते सवालों के मामले में न सिर्फ चुप्पी साध जाते हैं बल्कि सबसे ज़्यादा विचलित/असहज यहां तक कि कुपित भी हो जाते हैं…आज सरकार या सरकार से जुड़े अदना से कारिंदे को भी जनता के सवाल जुर्म लगते हैं…ऐसे में ज़िम्मेदारी/जवाबदेही और नैतिकता जैसे शब्द भी बेमानी हो चुके हैं..यही वजह है कि जिन मुद्दों या आरोपों पर कभी सरकार में बैठे लोग नैतिकता के आधार पर इस्तीफा दे दिया करते थे आज उनसे भी गम्भीर मुद्दों या आरोपो के साबित हो जाने के बाद भी सरकार ने बैठे लौग बेशर्मी से खींसे निपोरते नज़र आते हैं ..इस मुद्दे का सबसे चिंताजनक तो पहलू ये है कि “सवाल से असहज” होने की ये बीमारी सत्ता-शिखर से सत्ता के प्रारंभिक बिंदु तक फैलती जा रही है…ऐसे में सबसे बड़ा सवाल और गम्भीर चिंता का विषय तो यह है कि कहीं सवालों से विचलित होने या सवाल पूछने वालों से द्वेष रखने की इस बीमारी के चलते आने वाले समय मे लोकतंत्र का महत्व ही खत्म न हो जाये।

( लेखक ndtv18 लाइव न्यूज़ के सलाहकार सम्पादक एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं )