क्यों करते हैं लोग समाज सेवा?

अक्सर समाजसेवियों के बारे में आम लोग ये धारणा रखते हैं कि जिनके पास बहुत खाली वक्त हो और परोपकार करने में दिलचस्पी हो वे लोग समाज सेवा में उतर जाते हैं जहाँ उन्हें जनता की वाहवाही मिलती है, नाम, शोहरत, सम्मान मिलते हैं और बस वह एक स्थापित सम्मानीय समाजसेवी कहलाने लगता है। लेकिन यह सच नहीं है आज देश विदेश के बड़े बड़े पदों में आसीन लोग भी अपने व्यस्ततम दिनचर्या में से वक्त निकाल कर, अपने मनोरंजन, आरामपरस्ती का त्याग कर, समाज को समर्पित करते हैं क्योंकि वे समाज को एक वृहद परिवार मानते हैं उनके लिए जैसे अपने परिवार में कुछ गलत, अनियमित होता हुआ देखा नहीं जाता, वैसे ही वे दुनिया में कुछ बेहतर कर पाने की हुनर, खुद से ऊपर उठकर समाज में देश दुनिया में कुछ बदलाव लाने का ज़ज्बा रखते हैं, उन्हें एक विशेष ईश्वरीय वरदान होता है कि वे अपने आरामदायक जिंदगी को छोड़ खामखा एक नए बदलाव, नए मुहिम की बात छेड़ते हैं, लोगों को इकट्ठा करते हैं, विनम्रता पूर्वक पहले अपनी योजना को समझाते हैं ताकि कोई ये न समझ बैठे की इसमें अगुवाई करने वाले का कोई स्वार्थ तो नहीं छुपा हुआ है? पैसा कमाने का कोई धन्धा तो नहीं चल रहा है? जनता को बेवक़ूफ़ तो नहीं बनाया जा रहा है इसलिए अगुवाई करने वाला शख्स अपने सर पर एक ऐसा बोझ ले रहा होता है जिसके एवज में उसे सिवाय आलोचना के कुछ हासिल नहीं होगा। बेशक हर क्षेत्र की तरह समाज सेवा भी फर्जी समाजसेवियों से अछूता नहीं है और पैसा कमाने का एक माध्यम भी हो सकता है लेकिन अधिकतर सामाजिक अभियान कल्याणकारी ही होता है। इसलिए आलोचना के डर से हम जानवरों की तरह बिंदास तो नहीं बन सकते। आखिर इंसान रूप में जन्म लेने का कुछ तो प्रमाण प्रस्तुत करें हम सभी जीवों में श्रेष्ठ हैं, ईश्वर ने हमें सबसे विकसित मस्तिष्क दिया है, भावनाओं से भरा है, चेतना प्रदान की है जिससे हम किसी मुद्दे पर विचार कर सके और कुछ नवीन विचारों पर क्रियान्वयन के बारे में कोई निर्णय कर पाए। इसीलिए मानव को एक सामाजिक प्राणी कहते हैं, क्योंकि वह एक साथ मिलजुलकर समाज में रहता हैं, एक दूसरे के सुख दुख में काम भी आते हैं और जीवन को अनुशासित ढंग से जीते हैं और समाज के जागरूक लोग सामाजिक गतिविधियों कानून कायदों में बंधकर अपने कर्तव्यों का निर्वहन भी करते हैं इस प्रकार समाज हमारे लिए सुरक्षा तथा सुविधा के कवच के रूप में होता है। किसी समाज अथवा राष्ट्र की उन्नति व प्रगति के लिए सभी लोगों का खुशहाल होना जरुरी हैं. यदि कुछ लोग भी दुखों से पीड़ित रहेगे तो वह समाज आगे नही बढ़ पाएगा। इस बारे में गोस्वामी तुलसीदास ने बहुत ही सुंदर पंक्ति लिखी हैं परहित सरिस धर्म नहीं भाई, अर्थात दूसरों की भलाई से बढ़कर कोई भी धर्म नहीं हैं, इसे समझने के लिए प्रकृति से बेहतर उदाहरण क्या हो सकता है। प्रकृति हमें प्रकाश, ऊष्मा, जीवन सब कुछ निस्वार्थ ही देती हैं. पेड़ पौधे भी अपना जीवन प्राणियों को समर्पित कर देते हैं। यदि इंसान के दिल से परोपकारी गुण गायब हो गया तो यह संसार पशुवत हो जाएगा, जहाँ चार पैरों के जानवर और मनुष्य में कोई फर्क नहीं रह जाएगा। इसीलिए मानव समाज को लगातार बेहतर बनाने के लिए कुछ लोगों में असाधारण योगदान देने का ईश्वरीय वरदान होता है इसलिए अगुवाईकर्ता ईश्वर के इशारे को समझकर बड़े से बड़ा रिस्क ले लेता है, रातों की नींद उड़ा लेता है और फिर वह इसे अपनी ड्यूटी समझकर आगे कारवां बढ़ाता जाता है। समाज का एक तबका तो इसे बिल्कुल टाइम पास फालतू काम मानता है। पर कुछ दुर्लभ लोग जो विकृत समाज, पीड़ित समाज, संकटग्रस्त समाज के बारे में सिर्फ बात करके असंतुष्ट नहीं रहते उसमें बदलाव लाने की कोशिश करने के लिए कूद पड़ते हैं वही लोग क्रांति लाते हैं, स्वयं सेवी कहलाते हैं। और फिर सेवाभावी मनुष्य को सम्मान की नजर से देखा जाता हैं, उन्हें नहीं उनके काम को उनके जज्बे को सम्मानित किया जाता है क्योंकि वह निजी स्वार्थ से ऊपर उठकर अपने समाज के पीड़ित एवं दुखी लोगों की मदद कर रहा है, किसी अव्यवस्था के लिए आवाज उठा रहा है। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा कि “मरा वह नहीं कि जो जिया न आपके लिए, वही मनुष्य हैं कि जो मरे मनुष्य के लिए. मानव सेवा के कार्य में कष्ट जरुर झेलना पड़ता हैं पर इससे प्राप्त आत्म संतोष का सुख अतुलनीय होता हैं, और यह ईश्वरीय कृपा विरले लोगों को ही नसीब होता है।
जय हिंद जय भारत

शशि दीप ©✍
विचारक/ द्विभाषी लेखिका
मुंबई
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