मन में जमी ईर्ष्या की सफाई ही दिवाली की असली सफाई है!
(दीप उत्सव पर विशेष)

इन दिनों सभी भारतीय खासतौर से हिन्दू घरों में दीपावली महापर्व की तैयारी जोरों से चल रही है। छह दिनों का य़ह महापर्व देश भर में हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। इसलिए सब तरफ सजावट भी देखते ही बन रही है। हर वर्ग के लोग अपने-अपने स्तर पर अपने घरों, दुकानों की साफ सफाई व रंग रोगन कर रहे हैं। विभिन्न कला कृतियों व साज सज्जा के द्वारा घरों को सजाया जा रहा है, वातावरण में हर ओर स्वच्छता एवं नवीनता लाने का प्रयास किया जाता है।अपनी-अपनी हैसियत के मुताबिक लोग नये कपड़े, नये सामानों की ख़रीदारी
भी कर रहे हैं। सड़कों, दुकानों, गलियारों सभी ओर चहल-पहल व उल्लास का वातावरण है। धनतेरस के दिन से ही रात को दिए जलाये जाते हैं, बच्चे, बूढ़े, जवान सभी प्रसन्नचित नजर आते हैं। यह सब परंपरा के अनुसार चलता रहा है और चलता रहेगा पर क्या कभी हमने इस त्योहार के मूल संदेश पर अमल करने के बारे में चिन्तन किया है? क्या घर द्वार को जगमगाते दीयों से सजाने के साथ-साथ अपने आन्तरिक मन में सकारात्मकता का दीप जलाया है? क्या अपने अंदर के विकारों से निजात पाने की कोशिश की है? हर परिवार/संस्थाओं में लोगों में आपसी मनमुटाव रहता ही है क्या कभी समाधान को प्राथमिकता दे पाते हैं ताकि सम्बन्ध मजबूत हो।
‘असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्यर्मा मा अमृत गमय।’ -बृहदारण्यक उपनिषद
अर्थात हमें असत्य से सत्य की ओर ले चलो। अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो। मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो॥
इस मंत्र को अधिकतर लोगों ने सुना होगा पढ़ा होगा पर क्या सचमुच इस पर क्रियान्वयन कर पाए? दीपोत्सव का एक टिपटिमाता दीपक भी अनंत दूर तक फैले अंधकार को मिटाने की ताकत रखता है। जीवन में कितना ही घना अंधियारा हो, प्रकाश की चाह होनी ही चाहिए। पर अंदर का अंधियारा तो तभी खत्म होगा जब लोगों के दिलों में ईर्ष्या की धूल साफ हो, मन में अहंकार का जाला लगा हुआ है उसका उन्मूलन हो। हमारे अंदर की ऐसी सभी नकारात्मक प्रवृत्तियाँ हमारी पांचों ज्ञानेंद्रियों के क्रियाकलापों में बाधा पहुंचाते हैं, जिसकी वजह से मनुष्य अपनों की भावनाएं हो या औरों की भावनाएं, महसूस नहीं कर पाते। इसके लिए आत्म अवलोकन जरूरी है वास्तव में यही दीवाली की असली सफाई है। क्योंकि मैंने ईश्वरीय कृपा से एक चीज बहुत पक्के तौर पर महसूस किया है कि पारिवारिक स्तर हो, सामाजिक स्तर हो या कोई भी संस्थान या विभिन्न संगठनों को देखें हर जगह ईर्ष्या जलन अहंकार ये तीन जहरीले पदार्थ ही बरबादी का कारण होते हैं। मनुष्य खुद को दूसरों से प्रतिस्पर्धा में रखता है अपने अंदर की प्रतिभाओं को अपनी कमजोरियों के कारण सुषुप्त अवस्था में रखता है, फलस्वरूप असफलता की ओर अग्रसर होता है वहीं दूसरा अपने मेहनत और लगन से आगे बढ़ता जाता है पर असफल इंसान उसे देखकर खुश होकर प्रेरणा लेने के बजाय ईर्ष्या करते-करते हीन भावना का शिकार होता जाता है और फिर उस विषैले तत्व को विसरित करता जाता है। इसलिए हमें अपने के अंदर, ईर्ष्या, अहित, अनैतिकता,अहंकार, भय, अवसाद, तृष्णा, तिरस्कार, क्रोध, अपराध जैसे तमाम अवगुणों के अंकुर कभी पनपने नहीं देना चाहिए अन्यथा……ये न सिर्फ़ मनुष्य के हृदय पटल को प्रदूषित करते हैं, अपितु पूरे मानव समाज को कलंकित करते हैं।

शशि दीप ©✍
विचारक/ द्विभाषी लेखिका
मुंबई
shashidip2001@gmail.com