हम मानव तो एक सीप से भी गये गुजरे हैं!

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और उसे अपनी दिनचर्या से लेकर कार्यक्षेत्र, पारिवारिक अनुष्ठानों और विभिन्न अवसरों में समाज के विभिन्न लोगों के सहयोग की आवश्यकता होती है। इसलिए उसे सभी वर्ग के लोगों से मुखातिब होना पड़ता है। हालांकि ये बात और है कि वह  अपनी ज़रूरत व दिलचस्पी के अनुसार ही लोगों से निकटता स्थापित करता है।

वैसे तो हर व्यक्ति में अच्छाई व बुराई दोनों होती है परन्तु सबमें इन दोनों तत्वों का, मात्रा संतुलन भिन्न होता है। इसलिए सामाजिकता के सकारात्मक पहलुओं को ध्यान में रखते हुए हमें सजगता व सावधानी के साथ परखते हुए दूसरों की अच्छाइयों से सीखने का प्रयास करना चाहिए। कुछ सीखने या आगे बढ़ने के लिए अपने अंदर सहिष्णुता, जिज्ञासा व विवेकपूर्ण ग्रहणशीलता का होना भी ज़रूरी है। लेकिन इन प्रयासों में सबसे बड़ी मुश्किल जो आड़े आती है वह है समाज में व्याप्त स्वार्थांधता। जिसे देखो उसे अपनी उपलब्धियों की चिंता है, जैसे सिर्फ़ अपने लाभ के ध्येय से ही कोई किसी से जुड़ता है।

इससे साफ़ पता चलता है कि आसपास में या वृहद स्तर में असत्य, छल-कपट, धूर्तता व भष्ट्राचार का वातावरण है। इसलिए ऐसे लोग दुर्लभ हैं, जिसके ह्रदय में सत्य व निःस्वार्थ भाव विराजमान हो। राजनीति, ग्लैमर की दुनिया व प्रशासनिक क्षेत्र तो इसके चरम को छूते हैं। परन्तु बाकी जगह भी, यहां तक की आध्यात्मिक जगत भी इस बात से अछूता नहीं।

कहने का तात्पर्य है कि समस्त आवाम भाईचारा के साथ देश हित में कार्य कर पायें यह तो चंद प्रबुद्ध आत्माओं का महज़ एक सपना है। सच्चाई तो यह कि एक मानव दूसरे की तरक्क़ी अपने अंदर पचा ही नहीं पाता। हम तो एक सीप से भी गये गुजरे हैं जो उसके अंदर घुसपैठी करने वाले रेत के कण को भी अपना अंश समझकर,
बल्कि अपनी ख़ूबियों से और तराशकर, अद्भुत मोती में तब्दील कर देता है। कमल और कुमुदिनी की जोड़ी को भी देख लीजिए। दोनों एक ही वातावरण में रहते हैं, वही पोखर का दलदल, वही जल, पर कमल उगते सूरज को नमन करता है, और कुमुदिनी डूबते सूरज को; दोनों अपने-अपने समय पर खिलते हैं, और अपनी-अपनी आभा बिखेरते हैं, एक-दूसरे से बिना राग द्वेष के अपने अस्तित्व का भान कराते हैं; कितना सुन्दर तालमेल कितनी अच्छी व्यवस्था, कितना प्रेरक भाव, कितना सही जीने का कायदा है।

पर मानव जीवन यात्रा के दरम्यान, मुसाफिरों में मैत्री व आपसी विश्वास का अभाव है और स्वार्थी व टॉक्सिक (दूषित) परिवेश में स्वयं का समग्र उन्नयन ही संभव नहीं हो सकता फिर हम मिलकर कैसे बदलाव लाएंगे, समाज व देश के विकास में सहभागिता कैसे दे पायेंगे? गंभीरता से सोचने पर सिर्फ एक ही उपाय सामने आता है, पहले स्वयं खुद को सच्चाई के प्रति दृढ निष्ठावान रखें और झूठ, अफ़वाह,  घृणित राजनीति, अविश्वास जैसे तत्वों के कभी पोषक न बने। हम सभी एक अच्छा मानव समाज बनाने की सोच से एक दूसरे को सहयोग दें।  व असतो मा सदगमय का ध्यान करते हुए सत्य को अपने आचरण में धारण करें, फिर निर्भीकतापूर्वक कार्य करें या पहल करें व सामाजिक प्रदूषण के प्रवर्तकों को स्वयं की निःस्वार्थता से आश्चर्यचकित व सत्य की चिंगारी से भयभीत रखें, धीरे-धीरे वे प्राकृतिक रूप से कम होते जायेंगे।
शशि दीप ©✍
विचारक/ द्विभाषी लेखिका
मुंबई
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