महिलाओं के उत्पीड़ऩ़ का शिकार होने वाले पुरुषों की संख्या में होती बढ़ोतरी चिंता का विषय

भारत देश पुरुष प्रधान समाज की अवधारणा पर चलने वाला देश है।जबकि आजादी के बाद से लगातार महिला अधिकारों के संरक्षण के लिए बने कानूनों ने देश को सैद्धांतिक रूप से महिला प्रधान बना ही दिया है। आज देश की नारी सब पर भारी की परिणीति पर चल रही है। जमीन से लेकर आसमान तक गर्ज के हर क्षेत्र में देश की नारी का वर्चस्व और महत्व निरंतर बढ़ रहा है जो किसी से छिपा नहीं है। लेकिन तस्वीर का एक और रूप और भी है। महिला अधिकार, कानून, शक्ति का दुरुपयोग कहीं न कहीं पुरुषो की अस्मिता पर आघात पहुंचा रहा है। अभी देश का एक ताजा मामला है जो सुर्खियां बटोर रहा है। जी हां उत्तर प्रदेश की ज्योति मौर्या एसडीएम की कहानी आज सभी की जुबान पर आम है। उस प्रकरण में कौन कितना जिम्मेदार है इसका हम निर्णय नहीं कर सकते लेकिन ज्योति मौर्या एसडीएम के द्वारा महिला अधिकार संरक्षित कानून की आड़ में अपने पति पर आघात निंदनीय है। ज्योति मौर्या एसडीएम जैसी लाखों महिलाएं पुरुषों के अधिकारों पर कुठाराघात करती आई है। यह कोई पहले मामला नहीं। यही कारण है कि वर्षों से महिला आयोग की भांति पुरुष आयोग की मांग उठती रही है। 2010 के आसपास राजधानी भोपाल में मैने भी पुरुष अधिकार संरक्षण मंच का गठन किया था।

 

पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने पुरुष आयोग का गठन करने की मांग वाली याचिका को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि इसमें एक तरफा तस्वीर पेश की गई है। याचिका में मांग की गई थी कि जो पुरुष पत्नियों द्वारा घरेलू हिंसा से पीड़ित हैं, उन्हें न्याय देने के लिए एक विस्तृत दिशानिर्देश जारी हो और राष्ट्रीय पुरुष आयोग बनाया जाए। इंटरनेट मीडिया पर हमें अक्सर ऐसी खबरें पढ़ने को मिलती हैं कि पत्नियों के हाथों पिटने वाले पतियों के मामले में भारत विश्व में तीसरे स्थान पर है।

 

महिला सशक्तिकरण के इस दौर में जहां महिलाओं के लिए सरकार द्वारा अनेक कानून और नियम बनाए गए हैं तथा प्राथमिकताएं निर्धारित की गई हैं, वहीं पुरुषों पर अधिक दायित्व होने के बावजूद समाज की सोच और शासन व्यवस्था उनके पक्ष में नहीं है। पुरुषों की इसी स्थिति की ओर विश्व समुदाय का ध्यान दिलाने के लिए प्रतिवर्ष 19 नवम्बर को विश्व में ‘अंतर्राष्ट्रीय पुरुष दिवस’ मनाया जाता है। इसके पक्ष में तर्क यह है कि जिस प्रकार महिलाओं को लैंगिक आधार पर भेदभाव का शिकार होना पड़ता है उसी प्रकार पुरुष भी शारीरिक, मानसिक और यौनिक उत्पीड़ऩ़ का शिकार होते हैं जिसका निवारण होना चाहिए। पीड़ित महिलाओं की सहायता के लिए बनी हुई अनेक संस्थाओं, एन.जी.ओ. तथा आयोग आदि की भांति ही अब उत्पीड़ऩ़ के शिकार पुरुषों के लिए भी एन.जी.ओ. बनने लगे हैं। घरेलू हिंसा, मानसिक उत्पीड़ऩ़ और यौन शोषण के सम्बन्ध में महिलाओं के उत्पीड़ऩ़ का शिकार होने वाले पुरुषों की संख्या भी कम नहीं है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार देश में वर्ष 2021 में कुल 1,64,033 लोगों ने आत्महत्या की। आत्महत्या करने वालों में विवाहित पुरुषों की संख्या 81,063 थी। जबकि महिलाओं की संख्या 28,680 थी। 33.2 प्रतिशत पुरुषों ने पारिवारिक समस्याओं के कारण और 4.8 प्रतिशत ने वैवाहिक कारणों से आत्महत्या की। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार विवाहित महिलाओं की तुलना में अधिक विवाहित पुरुष आत्महत्याएं करते हैं। विवाहित महिला द्वारा आत्महत्या करने पर आमतौर पर किसी जांच-पड़ताल के बिना ही उसके पति और ससुराल वालों को हिरासत में ले लिया जाता है। इसके विपरीत पुरुष द्वारा अपने सुसाइड नोट में आत्महत्या की जिम्मेदारी पत्नी पर डालने के बावजूद अक्सर उस पर ध्यान नहीं दिया जाता। भारतीय दंड संहिता की धारा 497 के अंतर्गत पत्नी के अलावा किसी अन्य महिला से यौन संबंध रखने वाले पुरुष को तो सजा मिलती है परंतु अवैध संबंधों के लिए महिला को सजा नहीं मिलती। लैंगिक आधार पर कानूनी प्रावधानों के दुरुपयोग द्वारा पुरुषों के उत्पीड़ऩ़ को सुप्रीमकोर्ट ने सुशील कुमार शर्मा बनाम भारतीय संघ (2005) केस में ‘कानूनी आतंकवाद’ कहा था। यही नहीं अरनेश कुमार बनाम बिहार राज्य केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि नाराज महिलाओं द्वारा कानूनी प्रावधानों को एक कवच के रूप में इस्तेमाल करने की बजाय हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है। महिलाओं, बच्चों आदि के हितों की रक्षा के लिए तो अनेक आयोग और मंत्रालय बने हुए हैं परंतु पुरुषों के लिए ऐसा कोई मंत्रालय नहीं है। कानून के अनुसार कोई पुरुष बलात्कार का शिकार नहीं हो सकता जबकि पुरुषों का बलात्कार एक हकीकत है। वैसे यह बात भी उल्लेखनीय है कि पति-पत्नी के सम्बन्ध बिगडऩे के मामले में किसी सीमा तक लड़कियों द्वारा जरा-जरा सी बात को लेकर अपनी मां को फोन करना, मां द्वारा बेटी के ससुराल में हस्तक्षेप, एक ही शहर में विवाह, लड़की की तुलना में लड़के का कम शिक्षित होना, लड़की और लड़के का बौद्धिक स्तर का एक-दूसरे से मेल न खाना जैसी बातें भी होती हैं। इसके अलावा लड़की वालों द्वारा लड़के की योग्यता और अन्य गुणों को देखने की बजाय उसकी जायदाद के चलते रिश्ता करने से भी सम्बन्धों में तनाव पनपता है जिसके बाद में गंभीर परिणाम निकलते हैं। यह भी सच है कि सब पुरुष भी सही नहीं होते परंतु नारी पक्षीय कानूनी प्रावधानों के दुरुपयोग को देखते हुए जिन्हें वास्तव में सहायता की आवश्यकता है, उन्हें भी सहायता नहीं मिल पाती। इसी लिए लिंग भेद संबंधी कानूनों के दुरुपयोग को रोकना आवश्यक है ताकि न ही कोई पुरुष और न ही कोई महिला लिंग भेद के कानून के दुरुपयोग की शिकायत कर सके।

 

पुरुषों की आत्महत्या और घरेलू हिंसा से निपटने के लिए मानवाधिकार आयोग को भी निर्देश दिया जाना चाहिए। इसमें कुछ गलत नहीं है, लेकिन सवाल है कि ऐसा होगा कैसे? महिलाएं तो जैसे ही किसी प्रकरण में फंसती हैं, किसी न किसी ऐसे कानून का सहारा ले लेती हैं, जहां पुरुषों की कोई सुनवाई ही नहीं होती। बिना किसी जांच-परख के पुरुषों को दोषी मान लिया जाता है। कानून की यह कैसी प्रक्रिया है, जहां दूसरे पक्ष को अपनी बात कहने और अपने को सही साबित करने का अवसर ही प्रदान न किया जाए? ऐसे में पुरुषों की आत्महत्या और घरेलू हिंसा से निपटने के लिए केंद्र सरकार को महिला आयोग की भांति पुरुष आयोग की स्थापना करना चाहिए ताकि पुरुषों को अपना पक्ष रखने तथा न्याय प्राप्त करने का अधिकार मिले।संभवत:पुरुष आयोग की स्थापना से परिवार में विघटन जैसे समस्याओं पर अंकुश भी लगाया जा सकता है।

 

सैयद खालिद कैस

संस्थापक अध्यक्ष पुरुष अधिकार संरक्षण मंच

(पत्रकार,लेखक,अधिवक्ता)