केंद्र सरकार दमनकारी नीति पर अडिग
देश द्रोह कानून को बहाल कराने की साजिश
सैयद खालिद कैस
संस्थापक अध्यक्ष प्रेस क्लब ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट
भारत वर्ष में आजादी से पूर्व भारतीयों के अधिकारों के दमन के लिए ब्रिटिश सरकार ने एक दमनकारी कानून बनाया था जिसके तहत भारतीय क्रांतिकारियों,पत्रकारों का दमन किया जाता था, उनको अकारण प्रताड़ित किया जाता था, ब्रिटिश सरकार ने उस कानून को नाम दिया था “राजद्रोह कानून” यह ऐसा कानून था जिसमें ब्रिटिश सरकार अपने खिलाफ उठने वाली हर आवाज को दबाने कुचलने का कार्य करती थी। आजादी के बाद भी यह कानून देश में लागू रहा। भारतीय दंड विधान की धारा 124ए के रूप में कायम इस कानून का आजादी के बाद से व्यापक स्तर पर दुरुपयोग हुआ। लेकिन 2014 के बाद राजद्रोह कानून की आड़ में केंद्र सरकार ने राजनेताओं विशेषकर पत्रकारों के खिलाफ जो दमनकारी नीति अपनाई उससे देश का हर नागरिक परिचित है। यदि भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए पर विचार करें तो हाल के वर्षो में व्यापक स्तर पर इसका दुरुपयोग गंभीर चिंता का विषय बन गया है। राजद्रोह कानून भी औपनिवेशिक काल में बनाया गया था। आज देश में उसके व्यापक स्तर पर दुरुपयोग की बातें सामने आ रही हैं। राजद्रोह के कानून के दुरुपयोग को लेकर लंबे समय से देश के संविधान और विधि विशेषज्ञों के बीच विवाद रहा है। बीते साल मई के महीने में सुप्रीम कोर्ट ने देशद्रोह कानून को स्थगित कर दिया था।देशद्रोह की संवैधानिकता पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने अपने ऐतिहासिक फैसले में देशद्रोह कानून के प्रोविजंस पर पुनर्विचार होने तक इसके इस्तेमाल पर रोक लगा दी थी। 152 वर्षों में पहली बार देशद्रोह कानून के प्रोविजंस को सस्पेंड किया गया था। देशद्रोह कानून की संवैधानिकता पर सुनवाई कर रही तात्कालिन सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस एनवी रमणा, जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस हिमा कोहली की तीन जजों की बेंच ने ये फैसला सुनाया है था। तब राज्य सरकारों से कोर्ट ने कहा था कि केंद्र सरकार की ओर से इस कानून को लेकर जांच पूरी होने तक इस प्रावधान के तहत सभी लंबित कार्यवाही में जांच जारी न रखें. जो केस लंबित हैं, उन पर यथास्थिति बनाई जाए।
विदित है कि उच्चतम न्यायालय न केवल संविधान का संरक्षक है, बल्कि वह अधिकारों के संरक्षण और प्रवर्तन के लिए भी सशक्त है। न्यायालय की यह उत्कृष्ट भूमिका मेनका गांधी बनाम भारत संघ, 1978 मामले में दिए गए ऐतिहासिक निर्णय से स्पष्ट होती है जिसमें न्यायालय ने भारत के संविधान के ‘स्वर्णिम त्रिभुज’ की व्याख्या की है। इस त्रिभुज का निर्माण अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार), अनुच्छेद 19 (वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सहित अन्य मौलिक स्वतंत्रता) तथा अनुच्छेद 21 (जीवन का अधिकार) से हुआ है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के जरिये इस त्रिभुज के संरक्षण के लिए न्यायालय ने श्रेया सिंघल बनाम भारत संघ, 2015 मामले में सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 66ए को असंवैधानिक घोषित किया था।
सुप्रीम कोर्ट की तल्ख टिप्पणी के बाद केंद्र सरकार ने कानून को समाप्त करने के स्थान पर समीक्षा का रास्ता अपनाया और विधि आयोग को इसकी जिम्मेदारी सौंपी।तत्कालीन कानून मंत्री किरन रिजिजू और सुप्रीम कोर्ट के मध्य विवाद से सारा भारत परिचित है। किरन रिजिजू द्वारा सुप्रीम कोर्ट पर किए गए हमले देश के इतिहास में विशेषकर 2014से 2023के मध्य काफी प्रासंगिक माने जाते है। देश के इतिहास में किसी भी कानून मंत्री का सुप्रीम कोर्ट पर हमला दिखाई नही दिया लेकिन किरण रिजिजू के तीखे तेवरों ने ही उनको कानून मंत्री पद से हटने तक सुर्खियों में रखा। तत्कालीन कानून मंत्री किरन रिजिजू द्वारा प्रस्तावित मसले को अब विधि आयोग ने मूर्त रूप प्रदान कर वर्तमान कानून मंत्री श्री मेघवाल को सौंपा है।
गत दिनों सुप्रीम कोर्ट की तल्खी के बाद केंद्र सरकार ने उच्चतम न्यायालय को बताया था कि 124ए की समीक्षा की प्रक्रिया आखिरी चरण में है जिसके तहत केंद्र सरकार औपनिवेशिक काल के इस दमनकारी ‘देशद्रोह कानून को कुछ बदलाव के साथ बरकरार रखा जाना चाहती है। भारत के विधि आयोग ने सरकार को दी गई रिपोर्ट में कहा है कि देशद्रोह से निपटने वाली आईपीसी की धारा 124ए को इसके दुरुपयोग से रोकने के लिए कुछ सुरक्षा उपायों के साथ बरकरार रखा जाना चाहिए।
रिपोर्ट में कहा गया कि हालांकि प्रावधान के उपयोग को लेकर ज्यादा स्पष्टता के लिए कुछ संशोधन किए जा सकते हैं। विधि आयोग द्वारा सरकार को सौंपी गई अपनी रिपोर्ट में पैनल ने कहा कि धारा 124ए के दुरुपयोग पर विचारों का संज्ञान लेते हुए ये अनुशंसा करता है कि उन्हें रोकने के लिए केंद्र की ओर से दिशानिर्देश जारी किए जाएं। विधि आयोग द्वारा केंद्र सरकार को दिए गए सुझाव में कहा गया कि आईपीसी की धारा 124ए जैसे प्रावधान की अनुपस्थिति में, सरकार के खिलाफ हिंसा भड़काने वाली किसी भी अभिव्यक्ति पर निश्चित रूप से विशेष कानूनों और आतंकवाद विरोधी कानूनों के तहत मुकदमा चलाया जाएगा, जिसमें अभियुक्तों से निपटने के लिए कहीं अधिक कड़े प्रावधान हैं. रिपोर्ट में आगे कहा गया कि आईपीसी की धारा 124ए को केवल इस आधार पर निरस्त करना कि कुछ देशों ने ऐसा किया है, ये ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा करना भारत में मौजूद जमीनी हकीकत से आंखें मूंद लेने की तरह होगा। रिपोर्ट में बताया गया कि इसे निरस्त करने से देश की अखंड़ता और सुरक्षा पर प्रभाव पड़ सकता है।
केंद्र सरकार देशद्रोह कानून में संशोधन की तैयारी कर रही है. इसे लेकर संसद के मानसून सत्र में एक प्रस्ताव भी लाया जा सकता है. केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट में बीती एक मई को भी इसके बारे में जानकारी दी थी. सरकार का कहना है कि 124ए की समीक्षा की प्रक्रिया आखिरी चरण में है. इसे मानसून सत्र में पेश किया जा सकता है और इसमें बदलाव को लेकर सरकार प्रस्ताव लेकर आने वाली है। बता दें कि, कानून की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट सुनवाई कर रहा था। विधि आयोग द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट और केंद्र सरकार के रवैए से यह स्पष्ट हो गया है कि सरकार हठधर्मिता पर आमादा है और वह धारा 124ए की आड़ में आलोचनात्मक टिप्पणी को भी टारगेट कर पत्रकारों पर लगाए गए राजद्रोह के मामले वापस नही लेगी और साथ ही भविष्य में भी इसी प्रकार दमनकारी नीति अपना कर सरकार के खिलाफ उठने वाली आवाजों को कुचलने का काम करेगी। जबकि सुप्रीम कोर्ट स्वयं आलोचनात्मक टिप्पणी को राजद्रोह नही मानता।
क्या है राजद्रोह कानून:
भारतीय कानून संहिता (आईपीसी) की धारा 124A में देशद्रोह की दी हुई परिभाषा के मुताबिक, अगर कोई भी व्यक्ति सरकार-विरोधी सामग्री लिखता या बोलता है या फिर ऐसी सामग्री का समर्थन करता है, या राष्ट्रीय चिन्हों का अपमान करने के साथ संविधान को नीचा दिखाने की कोशिश करता है, तो उसे आजीवन कारावास या तीन साल की सजा हो सकती है।देशद्रोह मामले में दोषी पाए जाने वाले व्यक्ति को 3 साल की जेल से लेकर आजीवन कारावास की सजा हो सकती है। देशद्रोह गैर जमानती अपराध की कैटेगरी में आता है। देशद्रोह का दोषी पाया जाने वाला व्यक्ति सरकारी नौकरी के लिए अप्लाय नहीं कर सकता है। साथ ही उसका पासपोर्ट भी रद्द हो जाता है। जरूरत पड़ने पर उसे कोर्ट में उपस्थित होना पड़ता है।
यह कानून ब्रिटिश राज में, यानी अंग्रेजों ने 1870 में बनाया था। सेक्शन 124A को थॉमस मैकॉले ने ड्राफ्ट किया था, जिन्हें भारत में अंग्रेजी शिक्षा लाने का श्रेय जाता है। इसका सबसे पहले इस्तेमाल अंग्रेजों ने 1897 में स्वतंत्रता सेनानी बाल गंगाधर तिलक के खिलाफ किया था। गौर तलब हो कि भारत में देशद्रोह कानून बनाने वाले अंग्रेजों का देश ब्रिटेन 2009 में इस कानून को उसके यहां खत्म कर चुका है।
भारत में यूं तो हजारों लोगों पर देशद्रोह के केस दर्ज हुए होने लेकिन कुछ चर्चित हस्तियों पर देशद्रोह का केस दर्ज हो चुका है जिनमे JNUSU के नेता रहे कन्हैया कुमार ,r
वरिष्ठ दिवंगत पत्रकार विनोद दुआ,पूर्व राजनयिक ,कांग्रेस सांसद पूर्व केंद्रीय मंत्री शशि थरूर, क्रांतिकारी पत्रकार सिद्दीक कप्पन,पर्यावरण एक्टिविस्ट दिशा रवि, कानपुर के कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी, गुजरात के पाटीदारों के लिए आरक्षण की मांग करने वाले नेता हार्दिक पटेल देशद्रोह के मामले में अभी उमर खालिद और शरजील इमाम जैसे छात्र एक्टिविस्ट, सिद्दीक कप्पन और गौतम नवलखा जैसे पत्रकार, रोना विल्सन और शोमा सेन जैसे एक्टिविस्ट और कई लोग अभी जेल में हैं। जबकि वरवरा राव जैसे बुजुर्ग कवि-एक्टिविस्ट भी हैं।
प्रेस क्लब ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट ने केंद्र सरकार की हठ धर्मिता पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि सरकार देश द्रोह जैसे कानून को कायम रखना चाहती है जिसके बल पर अंग्रेजों ने दमनकारी नीति अपना कर क्रांतिकारियो,भारतीय पत्रकारों की आवाज को कुचला था ,वर्तमान सरकार वही नीति कायम रखने की परंपरा को स्थापित रखकर अंग्रेजी कुशासन की याद को कायम रखना चाहती है।