आंतरिक मानसिकता को परास्त करने के लिए महिलाओं को एकजुट होना नितांत आवश्यक

 

हिंसा से तात्पर्य है किसी को शारीरिक रूप से चोट या क्षति पहुँचाना। किसी को मौखिक रूप से अपशब्द कह कर मानसिक परेशानी देना भी हिंसा का ही रूप है। इससे शारीरिक चोट तो नहीं लगती परन्तु दिलों-दिमाग पर गहरा आघात जरुर पहुँचता है। बलात्कार, हत्या, अपहरण आदि को आपराधिक हिंसा की श्रेणी में गिना जाता है तथा दफ़्तर या घर में दहेज़ के लिए मारना, यौन शोषण, पत्नी से मारपीट, बदसलूकी जैसी घटनाएँ घरेलू हिंसा का उदाहरण है। लड़कियों से छेड़-छाड़, पत्नी को भ्रूण-हत्या के लिए मज़बूर करना, विधवा महिला को सती-प्रथा के पालन करने के लिए दबाव डालना आदि सामाजिक हिंसा के अंतर्गत आते है। ये सभी घटनाएँ महिलाओं तथा समाज के बड़े हिस्से को प्रभावित कर रहीं हैं।

 

एक तरफ जहां हमारे शास्त्रों में नारी को पूज्य बताया जाता है, ये कहा गया है कि “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:। यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफला: क्रिया:।।” ”जहां स्त्रियों का आदर किया जाता है, वहां देवता रमण करते हैं और जहां इनका निरादर होता है, वहां सभी कार्य निष्फल होते हैं।” इसी भावना को आत्मसात करते हुए कन्या पूजन/सुहागन पूजा होती है।

वहां आज ये स्थिति है जब महिलायें देश की प्रगति में अपना महत्वपूर्ण योगदान देने के उद्देश्य से अपनी एक अलग पहचान बनाने निकल रहीं हैं, पुरूषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने की हिम्मत कर रहीं हैं, उनकी परेशानियां कम नहीं हो रहीं हैं बल्कि बढ़ती महत्वाकांक्षाओं के कारण नयी परेशानियों की उत्पत्ति हो रही है। जिसमें महिंलाओं के विरुद्ध हिंसा एवं अत्याचार प्रमुख है। पुरुष प्रधान समाज में, अधिकांश घरों में पुरुष की तानाशाही चलती है, महिला चाहे कितनी भी पढ़ी-लिखी हो, कितनी भी काबिलियत से लबरेज़ हो, हरफ़नमौला हो, सशक्त हो पर घर के पुरुषों के समक्ष भीगी बिल्ली, क्योंकि उसे नीचा दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ते। उस समय घर की दूसरी महिलाएं भी ईर्ष्या जलन या संकोचवश चुप्पी साधे रहतीं हैं। वे इतनी हिम्मत नहीं जुटा पाते कि अपने पक्ष को मजबूती दें ताकि कभी वे भी सहायता की उम्मीद रखें तो दूसरा साथ दे. पुरुष वर्ग महिला की इस प्रवृत्ति से बखूबी वाकिफ़ है इसलिए वे बेख़ौफ़ नारी शक्ति का दमन कर सकते हैं। यही सब कारण है कि आज महिलाओं के हित के लिए कानून भी हर संभव सहायता उपलब्ध करा रही है, संवैधानिक अधिकारों की जानकारी है। संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर की धारा 1(3) और 8 के अन्तर्गत विश्व में महिलाओं के साथ भेदभाव, अन्याय या हिंसा को खत्म कर उनके उत्थान के लिए महत्वपूर्ण पहल कर चुके हैं। जिससे पारिवारिक स्तर से समाज उत्थान, देश व दुनिया में विश्व बंधुत्व व शांति संदभाव स्थापित करने में अपनी महती भूमिका निभा सके। पर पुरूष अपनी मानसिक वृतियों, अहंकार, असुरक्षा की भावना या अत्याधिक वासनाओं से वशीभूत होकर महिलाओं पर तरह तरह के कट्टरतापूर्ण कृत्य करते हैं। महिलायें बहुत हद्द तक सहन करतीं हैं व अंदर ही अंदर बेबस लाचार होकर ख़ामोशी अख्तियार कर लेतीं हैं। दरअसल अपने घर-परिवार की इज़्ज़त आबरू बचाने खातिर खुद के ऊपर हो रहे अत्याचार को सामान्य समस्या समझ कर किसी भी तरह के विवाद से बचती हैं। पर सभी महिलायें इतनी सहनशील नहीं हो सकती इसलिये कुछ मुट्ठी भर महिलाएं ही बगावत कर पातीं हैं, आवाज़ उठा पातीं हैं। बाकी अधिकतर महिलाएं मानसिक प्रताड़ना एवं शोषण जैसे ताना मारना, गाली-गलौज करना या और कई तरह से भावनात्मक ठेस पहुंचाना और सबसे ख़ौफनाक यौन शोषण अपने रोजमर्रा की जिंदगी में झेल रहीं होती हैं।

 

इस बात में कोई शंका नहीं कि दुनिया चाहे जितनी भी आगे निकल जाये महिलाओं को कमजोर ही समझा जाता रहा है। हाँ जरा सा बदलाव ये आया है कि अब सार्वजनिक रूप से से समाज के बीच नीचा दिखाने की प्रथा कम हो गयी है या सिर्फ ज्यादातर ग्रामीण क्षेत्रों में पाया जाता है जहां स्त्रियाँ या तो अनपढ़ होती हैं या नाम मात्र के लिए पढ़ी होती हैं। इस प्रकार आंतरिक तौर पर पुरुष वर्चस्व और रूढ़िवादिता अभी भी समाज के भीतर पैर पसारे हुए है फलस्वरूप महिलाओं के विरूद्ध हिंसा सम्पूर्ण समाज में व्याप्त है। भारत के नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार यहां हर 3 मिनट में किसी न किसी महिला के खिलाफ अपराध होता है। ऐसी स्थिति में सवाल ये है कि घर-घर के अंदर विद्यमान महिला प्रताड़ना, अपराध व छोटी-बड़ी हिंसा के लिए ज़िम्मेदार प्रदूषित व विकृत मानसिकता को जड़ से कैसे उखाड़ फेंका जाये? अच्छा एक और शर्मनाक सच्चाई ये है कि आग में घी डालने का काम खुद महिला बिरादरी “महिला महिला की दुश्मन होती है” कहावत को चरितार्थ करते हुए करतीं हैं। ऐसे में इस समस्या का पूर्ण उन्मूलन असम्भव सा प्रतीत होता है. विडम्बना तो देखिये

भारतीय वेदों एवं पुराणों में महिला को प्रकृति की देवी के तरह (शक्ति को सरस्वती, लक्ष्मी और दुर्गा) आदि के नाम से व्याख्या मिली है। शक्ति का रूप होते हुए भी हम फिसड्डी हैं, चाहे कितना भी सशक्तिकरण अभियान चलाया जाये, आंतरिक मानसिकता को परास्त करने के लिए महिलाओं को एकजुट होना नितांत आवश्यक है, एक दूसरे के सच्चे ह्रदय से साथ देना सर्वोपरि है।

 

शशि दीप ©✍

विचारक/ द्विभाषी लेखिका

मुंबई

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