निस्वार्थ भाव से की गई सेवा का कोई मोल नहीं होता
बरसों से लेखनी और समाज सेवा में जुड़े रहने की वजह से दुनिया में ऐसे कई लोगों की दरियादिली देखने को मिलती है कि समाज, देश, दुनिया के प्रति हमारा अपना योगदान महज तिनके सा मालूम पड़ता है। संत महात्माओं का कहना है कि मनुष्य जीवन हमें इसलिये मिलता है ताकि हम दूसरों की मदद कर सकें, हमारा दुनिया में होना तभी सार्थक कहलाता है जब हम अपने बुद्धि विवेक से, अपने अंदर निहित ईश्वर प्रदत्त मानवता/करूणा भाव से दूसरों के दुःख दर्द को समझें और यथासंभव सहायता करें। जरूरी नहीं कि जिसके पास पैसे हो या जो अमीर हो केवल वही दान दे सकता है। याद रहे दूसरों को मदद करना किसी के अमीर होने की मोहताज नहीं, ढेरों मदद तब भी की जा सकती है, जब निष्पादक के पास सिर्फ मूलभूत आवश्यकताएँ हों व दिल में दूसरों के लिए सच्चे जज्बात हों। मैं खुद भी इस श्रेणी में आती हूँ, एक मध्यमवर्गीय परिवार होने के कारण आर्थिक मदद के लिए उतना फण्ड नहीं निकल पाता, जितना दिल में ख़्वाहिश होती है। लेकिन दूसरे और अनगिनत तरीके हैं, माध्यम हैं जिससे हम औरों भला कर सकते हैं। किसी का मनोबल बढ़ा सकते हैं, सही उपाय सुझा सकते हैं, उनकी उलझनों को समझ कर उनका बोझ हल्का कर सकते हैं, उन्हें सशक्त बना सकते हैं। भारतीय सभ्यता संस्कृति के तहत माता-पिता द्वारा संतानों में सेवा भाव के संस्कारों का बीजारोपण तो बचपन में ही कर दिया जाता है। बाद में उसका संवर्धन करते जाने से समाज हित में एक उत्कृष्ट पहल का शंखनाद हो जाता है और मनुष्य इस भावना को धारण किये अभ्यस्त हो जाता है।
मेरे एक शुभचिंतक जिन्हें उम्र, अनुभव व ओहदे के लिहाज से बड़े होने के नाते मैं मार्गदर्शक मानती हूँ, वे अक्सर दूसरों के मसलों के दलदल में फंसकर भी समाधान सुझाने में कोई कसर नहीं छोड़ते। उनका वक्त बेहद कीमती है, लेकिन उनके कार्यक्षेत्र के अंदर अच्छे पैसेवाले लोग भी बिना फीस के कई मदद ले लेते हैं और उनमें से अधिकतर लोग काम होने के बाद उनकी तरफ मुड़ के भी नहीं देखते, पर उनकी सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता। मैंने प्रत्यक्ष देखा है वे कई बार कई लोगों की क़ाबिलियत देखकर उन्हें इतना आगे बढ़ाने की इच्छा रखते हैं कि आर्थिक रूप से ज़रूरतमंद न होने के बावजूद भारी व्यस्तता के बीच भी उन्हें सहजतापूर्वक अपना समय, ऊर्जा यहाँ तक धन भी व्यय कर देते हैं और तनिक भी नहीं सोचते कि सामने वाला उस बेशकीमती मदद की अहमियत किस हद्द तक समझ पायेंगे और आगे कितना जारी रख पायेंगे। ज़रा सोचिये, ऐसी मदद, ऐसा हित चाहने के लिए कितना बड़ा दिल चाहिए। हालाँकि मेरे पूज्य पिताजी भी ऐसे कई कार्य निःस्वार्थ करते थे लेकिन तब मुझमें इतनी परिपक्वता नहीं थी कि मैं इस विषय पर गहराई से चिंतन कर सकूँ। लेकिन अब जब खुद उनकी शाॅल ओढ़े मैदान में कूद पड़ी हूँ तो समझ आता है कि शायद ऐसे ही पुण्यात्माओं से दुनिया खूबसूरत कहलाती है ऐसे ही लोग उस प्रचलित कविता “वह जीवन भी क्या जीवन है, जो काम देश के आ ना सका, वह चंदन भी क्या चंदन है, जो अपना वन महका ना सका।” को आत्मसात करते हैं। इस तरह की मदद चेरिटी या गरीब, असहायों को आर्थिक सहायता देने से बिल्कुल भिन्न है। इसमें भावनाओं की प्रधानता पायी जाती है। दूसरों के पचड़ों में पड़ने का रिस्क उठाना पड़ता है। लेकिन सचमुच दूसरों की उलझनों में पड़ना कोई आसान बात नहीं, दूसरों के जज़्बातों को तवज्जो देना पड़ता है। अपनी वयस्त दिनचर्या से कुछ कीमती वक़्त निकालना पड़ता है फिर सामने वाले की ज़रूरत के मुताबिक़ अपना अहम योगदान देना पड़ता है।इसमें फायदा हो या घाटा नज़रअंदाज़ करना पड़ता है लेकिन इस पूरे मसले में सामने वाले का हम पर विश्वास मायने रखता है, इतनी गूढ़ता के साथ समझता कौन है? भला इतनी परवाह लोग करते कहाँ हैं? काश! दुनिया में अधिक से अधिक लोग इस तरह की भावना के धनी होते तो दुनिया कितनी खूबसूरत होती।
शशि दीप ©
विचारक/ द्विभाषी लेखिका
मुंबई
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