मोह का मायाजाल मानसिक रुग्णता का परिणाम

 

प्रत्येक मनुष्य जो सांसारिक जीवन जी रहा है उसके अंदर अपनों के प्रति मोह का होना स्वाभाविक है और देखने सुनने में आता है कि चाहे कोई कितना भी शास्त्रों का अध्ययन कर ले, ज्ञान अर्जित कर ले, जीवन की सच्चाई से वाकिफ़ हो इसके बावजूद मनुष्य अपनी आखिरी सांस तक पूरी तरह से मोह से मुक्त नहीं हो पाता। मोह का मायाजाल उसे घेरे रहता है। खैर अपनों से, आत्मीय जनों से मोह होना तो समझ आता है क्योंकि हम रिश्तों से, भावनाओं से बंधे हैं, एक दूसरे के प्रति कर्त्तव्य निर्वहन के परिणामस्वरूप जुड़े हैं।

पर यह जानते हुए कि परिवर्तन संसार का नियम है और यहां कोई भी चीज स्थाई नहीं है, हर हालात, हर चीज़ के अस्थाई होने के अनगिनत प्रमाण होने के बावजूद इंसान का निर्जीव वस्तुओं से भी अत्यधिक मोह होना हास्यास्पद प्रतीत होता है। अति तो तब हो जाता है जब उम्र के अंतिम पड़ाव में भी अधिकतर लोग रोजमर्रा की वस्तुओं तक को ऐसे सहेज सहेज के बटोरते हैं, जैसे अंतिम यात्रा की विमान में हजारों किलो सामान ले जाने की अनुमति हो। जबकि सच तो ये है कि सबको खाली हाथ ही जाना है। कौन कब कहाँ कैसे जायेगा, किसी को भी ज़रा भी भान नहीं, ऊपरवाला ज़रा भी हिंट दिए बिना सीधे ले जाता है।

पंच तत्वों से बना ये शरीर एक समय के बाद जब आत्मा से आजाद होते ही वापिस उसी आग, हवा, पानी, मिट्टी और आकाश में मिल जाएगा। इसलिए लालच व अत्यधिक मोह को त्यागकर व्यक्ति को जीवन का आनंद उठाना चाहिए। लेकिन होता ये है कि वर्तमान के आनंद को नजरअंदाज करते हुए उसे हर चीज़ से इतना मोह रहता है जैसे जीवन में सब कुछ स्थायी और स्थिर रहने वाला है।

 

उदहारण के लिए मेरे पहचान में एक 83 साल की धनाड्य महिला है, बरसों पहले उनके पति के देहान्त के बाद से अपनी इच्छा से अकेले रह रही है हालाँकि उनके अनुसार उनकी संतानें ज़िम्मेदार हैं और आस-पास ही रहते हैं। लेकिन ऐसा जान पड़ता है जैसे उन्हें अपनी स्वतंत्रता प्रिय है। इस उम्र तक उन्होंने बहुत सी चल अचल संपत्ति जोड़ रखी है और सामान भी बहुत है। घर की अलमारियाँ साड़ियाँ और गहनों से भरी है, पर मोह इतना जिसकी कोई हद नहीं। एक दिन मुझसे कहतीं हैं, “शशि मेरे पास ढेरों महंगी साड़ियां हैं, अब पहनी नहीं जाती पर ऐसे फ्री में किसी को कैसे दूँ? क्या काम वाली बाईयाँ इन्हें आधी कीमत में लेंगी, पता करो ना।” मैंने कहा आंटी! वे महिलाए आपके उतरन कपड़े आधी कीमत में लेने से अच्छा दुकान से थोड़ी कम कीमत की लेकिन नयी साड़ियाँ पहनना नहीं पसंद करेंगे? आखिर हर इंसान का अपना आत्म सम्मान होता है। देना है तो इन कपड़ों से मोह त्यागो और यूँ ही ज़रूरतमंदों में बाँट दो। पहन के दुआएं तो देंगे। इसी प्रकार मेरी सासू माँ एक दिन कहती हैं कि ये साड़ी महंगी है, वो साड़ी महंगी है। मैंने उन्हें भी प्रेमपूर्वक यही बात समझाया कि सहेज कर कोई फायदा नहीं, चाहे कितने भी महंगे कपड़े हों, अभी तक जितने सामान कपड़े इकट्ठे किये सबको जितना ज़्यादा इस्तेमाल कर सकें, वही उत्तम है। उन्हें ड्राई क्लीनिंग करा के सहेजें नहीं कोई मतलब नहीं।

जिस अंदाज़ में मैंने इन दोनों आत्माओं को मोह त्यागने का मसला समझाया, उन्हें दिलचस्प लगा, समझ भी आया पर आश्वस्त नहीं हुए होंगे। लेकिन कुछ प्रभाव तो ज़रूर पड़ा होगा। ऐसे अनेकों उदाहरण मौजूद हैं।

कहने का तात्पर्य यह है कि जब तक हम स्वयं इस बात को स्वीकार नहीं करेंगे कि मोह का यह मायाजाल हमारी ही अपनी मानसिक रुग्णता का परिणाम है, तब तक हम इससे बाहर नहीं निकल पाएंगे। अत: यदि हम अपना उद्धार चाहते हैं, तो हम रिश्तों से अपनों से मोह त्याग न सही पर वस्तुओ से मोह का त्याग तो पूरी तरह से अपने नियंत्रण में होता है। इस प्रकार इच्छा-कामनाओं का सभी आत्माओं से नि:स्वार्थ प्रेम करना सीखना होगा, अन्यथा हम मोह रूपी दलदल से, सांसारिक आसक्ति से कभी भी बाहर निकल नहीं पाएंगे, न ही जीवन सार्थक ढंग से जी पाएंगे।

 

शशि दीप ©✍

विचारक/ द्विभाषी लेखिका

मुंबई

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