आधुनिक युग में भी पुरुषत्व के हावी भाव से नारी का आहत मन!

 

विगत सप्ताह अपने गृह राज्य छत्तीसगढ़ के, चार दिन की सुखद प्रवास से लौटने के बाद आज जब यात्रा के दरम्यान हुई गतिविधियों को स्मृतिपटल पर विराजमान कर उनसे मुखातिब हुई तो भावविभोर कर देने वाले पलों की तो जैसे गिनती कर पाने में असमर्थ रही। हालाँकि मेरी यह चार दिन की यात्रा आवश्यकता परक थी लेकिन परिवार, मित्रों व प्रसंशकों की आत्मीयता व अति प्रेमभाव ने इसे बेहद सुखद व अविस्मरणीय बना दिया। वहां पहुँचते ही दूसरे दिन एक साहित्यिक संस्था के विशेष आमंत्रण पर एक ऐसी जगह साहित्य समागम में शिरकत करने का सुअवसर प्राप्त हुआ, जो शहर की कृत्रिमता से दूर एक दिव्य पूजा स्थल का परिसर था। वहां बुद्धिजीवियों का सानिध्य, साहित्य बिरादरी के साथ अपने पसंदीदा विषयों पर चर्चाएं, पूजा स्थल की चुम्बकीय दिव्यता व प्रकृति का वास्तविक आनन्द मुझे पुलकित कर रहा था। दूर-दूर तक हरियाली नज़र आ रही थी। कोयल की कूक, पत्तियों की सरसराहट, ठंडी आबोहवा, पूजा स्थल की मनमोहक खुशबू व अलौकिक आकर्षण और इन सब के बीच मधुर काव्य रस का कल-कल करता स्वर, ऐसा अनुभूत हो रहा था मानो पर्वतीय स्थल की गहरी घाटियों के मध्य से जल प्रवाह का मनोहारी दृश्य जीवंत हो उठा हो। निश्चित ही कई रमणीय दृश्य कैमरे में कैद करने लायक थे। उसके पश्चात अंत में वहां का स्वादिष्ट प्रसादम व परंपरागत रूप से जमीन में बैठकर सबका एक साथ भोज ग्रहण करना अभिभूत किया। वहां का मान-सम्मान, स्नेह व आत्मीयता अत्यंत हर्षित करने वाला, अद्भुत व अविस्मरणीय था।

 

वहीँ दूसरी तरफ अगले ही दिन मुझे दूसरे शहर में एक दूसरे साहित्यिक कार्यक्रम में शिरकत करना था जहाँ उपरोक्त वर्णित प्रत्येक अनुभूति के विपरीत एहसास हुआ। वहाँ सम्मिलित होकर ऐसा लगा कि आधुनिक युग में भी भारतीय नारी की त्रासदी कम नहीं हुई है और तो और सार्वजनिक रूप से फलता-फूलता दृष्टिगत हुआ। एक ऐसी सभा, एक ऐसा समागम जहाँ सभी महत्वपूर्ण अनुष्ठानों में महिलाओं की मौजूदगी के बावजूद उन्हें भागीदारी से वंचित रखा गया। न मुख्य सम्मान के नामों की सूची में किसी महिला का नाम, न मुख्य अभ्यागतों में किसी महिला का नाम, न किताब विमोचन में खड़े करीब एक दर्जन से ज़्यादा विभूतियों में किसी महिला सदस्य का समावेश, हद तो तब हो गई कि दीप प्रज्वलन जैसे अनुष्ठान में भी किसी भी महिला को बुलावा न होना, इस बात का संकेत था कि आयोजकों में पुरुषत्व का दिखावापान था, महिला बिरादरी के प्रति कितना झूठा सम्मान था। कितना अहंकार झलक रहा था, कुछ लोगों के निजी स्वार्थ से प्रेरित नज़र आ रहा था।उनकी ओछी मानसिकता का द्योतक था। सच ही कहा जाता है, नारी उत्थान के समक्ष पुरुष का अहम् सदैव आड़े आता रहा है। खैर जो भी हुआ पर भविष्य में शायद ऐसी सभा में जाने को मन लालायित न हो। अब तो “बीती ताहि बिसारि दे, आगे की सुधि लेइ। जो बनि आवै सहज में, ताही में चित देइ॥” दोहे को आत्मसात करते हुए संस्कारी महिलायें सरेआम किसी की फजीहत नहीं करतीं वे मर्यादा की रक्षक होतीं हैं। अपने संस्कारों को समेटे वे हर स्थिति में खुश रहतीं हैं। लेकिन कलम के प्रति निष्ठा व माँ सरस्वती के प्रति आस्था रखते हुए झूठी समीक्षा दिया जाना भी न्यायसंगत नहीं। आशा है इन दोनों अनुभूतियों के संप्रेषण से किसी की भावना आहत न हो और भविष्य में ऐसी बातों को दोहराने से बचा जाये। भारतीय जनमानस की विचारधारा में परिवर्तन, लैंगिक समानता की भावना, हठधर्मिता का त्याग निश्चित ही देश को विकास की और अग्रसित करेगा। व्यक्तिगत तौर पर छत्तीसगढ़ की समस्त साहित्य बिरादरी को इस अकिंचन की तरफ से हार्दिक नमन, हार्दिक आभार। आपका स्नेह आशीर्वाद व मार्गदर्शन सदैव मिलता रहे यही शुभकामना।

 

शशि दीप ©✍

विचारक/ द्विभाषी लेखिका

मुंबई

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