आत्म संशोधन से जीवनोपयोगी प्रेरणा मिलती है!!

एक बार एक कौवे को मांस का एक टुकड़ा मिला और वह उसे कहीं बैठकर चाव से खाने के लिए मुँह में लिए इधर-उधर उड़ रहा था। जिस क्षण से कौंवे ने उसे पकड़ा था, दूसरे कौवों ने उसे घेरना शुरू कर दिया और उसका पीछा छोड़ ही नहीं रहे थे। आखिरकार कौंवे ने तंग आकर मांस गिरा दिया और तुरंत ही दूसरे कौवों ने पीछा करना छोड़ दिया। हमारे जीवन में भी यही होता है, कभी-कभी हम हठधर्मिता अपनाते हुए एक ही विचार को पकड़े अपने दिमाग में फिक्स कर लेते हैं और हमारे बाकी सभी विचार उससे सकेंद्रित होकर गुजरते हैं। उदाहरण के लिए, यदि कोई माता-पिता इस विचार पर स्थिर हो जाते हैं कि उनके बेटे या बेटी को इंजीनियरिंग करना चाहिए, तो उनके विचार इंजीनियरिंग के मुताबिक स्थिर रहता है और बाकि की योजना उसी पर केंद्रित हो जाती है।फ्लेक्सिबिलिटी नहीं रह जाती। उस बच्चे की छठवी कक्षा से ही, माता-पिता उस विचार को लागू करने के विभिन्न तरीकों से इतने प्रभावित हो जाते हैं, कि उस धारणा से अलग कुछ और देखने में सक्षम नहीं हो पाते। मुख्य विचार के इर्द-गिर्द दूसरे सभी विचार इतने जकड़े हुए होते हैं। यही बात शादी-ब्याह के मामले में भी होता है, माता पिता अपने बच्चों के भविष्य को लेकर हद्द से ज्यादा आश्वस्त रहते हैं, जाति धर्म के बंधन में जकड़े रहते हैं और उम्मीद लगाये बैठे रहते हैं, उनके बनाए सभी सिद्धांतों का अनुपालन होगा और ठीक वैसा न होने की स्थिति में ठीक बात न होगी ऐसी सोच रखते हैं। चाहे बच्चे कितनी भी परिपक्वता से कोई निर्णय लिए हैं, कितने भी गम्भीर हों माता पिता की हठधर्मिता उनका सुकून छीन लेती है और कई तकलीफों को खुद ही न्योता देते हैं। मैं स्वयं भी कभी-कभी हठधर्मिता के कारण कई तरह की परेशानियों में घिर जाती हूँ और एक बार कोई चीज़ सोच ली फिर दूसरे विकल्प कोई कितना भी सुझाये, मेरा दिमाग किसी तरह उस विचार के क्रियान्वयन में ही केन्द्रित रहता है। मेरे मार्गदर्शक या करीबी मित्रों को अपनी इस आदत से निराश भी करती होंगी इसका मुझे तनिक एहसास होता है। और इसीलिए यह आज के चिंतन का विषय बना। हाल ही में मेरे एक करीबी शुभचिंतक/मार्गदर्शक, जिनसे मैं अपने कर्म क्षेत्र से संबंधित हर अहम निर्णय से पहले सलाह मशविरा लेती हूँ, ने एक सामूहिक पहल के क्रियान्वयन मेरी हठधर्मिता पर असंतोष जताते हुए, हल्के अंदाज़ में तरतीब पेश की कि उस ठूंठ को ही नहीं रखना जिस पर उल्लू बैठे। मुझे बेहद हंसी आई और और अपनी इस मनोवृत्ति पर गंभीरता पूर्वक विचार कर आत्म संशोधन करने की जीवनोपयोगी प्रेरणा मिली। सच ही है जैसे ही किसी फिक्स्ड विचार का त्याग करते हैं, नए और बेहतर विकल्पों पर विचार करने की स्वतंत्रता मिलती है। एक लक्ष्य तक पहुँचने के लिए ध्यान केंद्रित करना स्वागतेय है लेकिन लक्ष्य को हठपूर्वक तय करना बिल्कुल ठीक नहीं, निराशा मिलने का चांस ज़्यादा रहता है। इसलिए ज़रा नम्य होना आवश्यक है, ताकि दूसरों के बेहतर विचारों को सुनने समझने के लिए दिलोदिमाग़ फ्री रहे।

शशि दीप ©✍
विचारक/ द्विभाषी लेखिका
मुंबई
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