बेटी बोझ नहीं ईश्वरीय उपहार है
(अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस 2023 पर विशेष)
सोलह साल पहले, जब ईश्वर की महान अनुकम्पा से मेरे गर्भ में जुड़वाँ शिशु पल्लवित हो रहे थे, तब सभी गर्भवती महिलाओं की तरह, मेरे भी मन में भी कई दिलचस्प सवाल उठते थे। जैसे, क्या मेरी दो बेटियां होंगी, दो बेटे होंगे या एक बेटा और एक बेटी होगी? फिर तीनों ही संयोजनों को कल्पना करके मुस्कुराती थी, परन्तु बेटी के रूप में खुद को पुनः देखने की बड़ी ख़्वाहिश थी, और अक्सर वह ख़्याल मन को अत्यधिक प्रफ्फुलित करता था। ऐसा लगता था, मानो जन्म से पहले ही वह मेरी आत्मा में बस गयी हो। परन्तु मैं ईश्वर के हर निर्णय के लिए तैयार थी। हर माँ की तरह, मेरी भी सबसे बड़ी व महत्वपूर्ण प्रार्थना यही थी कि दोनों शिशु स्वस्थ हों और किसी तरह की कोई शारीरिक संरचनात्मक या आन्तरिक बनावट में कोई त्रुटि या दोष न हो।
धीरे- धीरे दिन बीतता गया और वह दिन आ गया जब मुझे मुंबई के जसलोक हाॅस्पिटल की 19 वीं मंजिल प्रसव कक्ष में ले जाया जा रहा था। जैसे ही ऑपरेशन थिएटर के दरवाजे पर पहुंची, मैंने नमन किया और फिर से एक बेटी, मेरी कल्पना में किलकारी भरने लगी। मैं बेटी के बगैर जैसे अपने आपको सोंच ही नहीं पा रही थी। अब मुझे विश्वास सा हो गया की बेटी आने ही वाली है। कुछ देर के पश्चात मेरी व्याकुलता समाप्त हो गयी, और ईश्वर ने मेरे आँचल में 2 दिव्य दिव्यात्माओं को सौंपा और मैं भावविभोर हो गयी मेरे पास ईश्वर की महिमा गाने के लिए उपयुक्त शब्द नहीं थे। मैं साक्षात् ईश्वर को इन दोनों नवजात के चमकते चक्षुओं में देख पा रही थी।
आखिरकार मेरी कल्पना, हकीकत में तब्दील हो चुकी थी, नन्ही सी गुड़िया और नन्हा सा गुड्डा दोनों मेरे जीवन उपवन में खिल चुके थे। समय तो मानो अब भागने लगा, बच्चे जल्दी-जल्दी बड़े होने लगे और अब, जब दोनों 16 साल के हो चुके हैं, मेरी बेटी मेरी दोस्त बन चुकी है। जब मैं माँ की भूमिका में रहती हूँ तब उसे ज़रूरी बातें सिखाती, समझाती रहती हूँ, जब वह मेरी माँ की भूमिका में रहती है तब वह मुझे कई बातें सिखाती है, समझाती है। जब हम दोनों सहेली की भूमिका में होते हैं तब दो किशोर लड़कियों की तरह, शरारती बातें करते है, कई बार गंभीर विषयों में चर्चा भी करते हैं। मुझे उसके मन की बातें, जानने मेंं बड़ा आनंद आता है। उसकी मासूमियत व साथ ही साथ उसकी परिपक्वता देखकर मैं अचंभित रह जाती हूँ।
ख़ुशी इस बात की है कि, वह मुझसे किसी भी बात को साझा करते हुए झिझकती नहीं है और यह एक माँ लिए एक बहुत बड़ी उपलब्धि/संतुष्टि है। मैं अपने प्यारे बेटे से भी इसी तरह एक दोस्ती का रिश्ता रखते हुए मातृत्व का आनंद उठाती हूँ परन्तु बेटी तो मेरा ही छोटा रूप है, जिसमें मुझे, स्वयं के नवजात से लेकर लड़कपन, फिर किशोरावस्था तक की झलकियां दिखती है। मैं ईश्वर के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए उसे कड़ी मेहनत और लगन से करके आगे बढ़ने की सीख देती रहूंगी और खुद भी अपने जीवन में आत्मसात करती रहूंगी। गौरतलब हो की मेरे माता-पिता को मुझे पाने के लिए भी ऐसी ही तड़प थी, क्योंकि हमारे परिवार में बेटे ज़्यादा थे इसलिए बेटी की असीम चाहत थी व्यक्तिगत तौर पर जिस माहौल में रही और बेटी पाने की ललक मेरे खून मेरी रूह में थी यह सोचकर ही दिल दहल जाता है लोग बेटी को बोझ समझ गर्भ में ही नष्ट कैसे कर सकते हैं, इतनी राक्षसी सोच उनके अन्दर आती कैसे है? खैर हमारे देश की तो यही सच्चाई है. ईश्वर सबको सद्बुद्धि दे।
बेटियां आंखों का नूर होती हैं
बेटियां दिल का करार होती हैं
बोझ मत इनको समझो प्यारे
बेटियां ईश्वर का उपहार होती हैं।
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की हार्दिक बधाई एवं नेक शुभकामनाएं।
शशि दीप ©✍
विचारक/ द्विभाषी लेखिका
मुंबई
shashidip2001@gmail.com