चाटुकारिता की लगी दीमक ने निष्पक्ष पत्रकारिता का क्षरण कर दिया!
सैयद खालिद कैस
संस्थापक अध्यक्ष
प्रेस क्लब ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स
विगत 8,10 वर्षों के इस अंतराल में भारतीय मीडिया का जो रूप बदला, उससे हर कोई परिचित है। लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाने वाली पत्रकारिता जिस प्रकार चाटुकारिता को परिभाषित कर रहा है वह निष्पक्ष पत्रकारिता के लिए अशुभ संकेत हैं। आज की शासन सत्ता भी निष्पक्ष पत्रकारिता को निशाने पर लिए है जिसका कारण है कि पत्रकारिता की अस्मिता को बचाने वाले जेल में और चाटुकारिता करने वाले विलासिता में नजर आते हैं।
गत दिनों क्रांतिकारी पत्रकार सिद्दिक कप्पन एक लम्बे अरसे बाद जेल की चार दिवारी से सम्मान सहित मुक्त हुए उनके जीवन का एक महत्वपूर्ण काल जेल में गुजरा वह भी निर्दोष होते हुए। अंतत:न्यायपालिका ने उनको मुक्त किया।फिर एक बार न्याय और न्यायपालिका पर विश्वास अडिग हुआ। मगर क्या यह सही था?
जिस आरोप में सिद्दीक कप्पन जेल में थे क्या वह राजनैतिक द्वेष था?
क्या सरकार को आईना दिखाना अपराध है?
क्या निष्पक्ष पत्रकारिता अपराध है?
क्या चाटुकारिता ही पत्रकारिता का महत्त्वपूर्ण अंग हो गया है?
यह तमाम सवाल हमें इस बात की ओर इशारा करते हैं कि वर्तमान संदर्भ में शासन सत्ता द्वारा जिस प्रकार निष्पक्ष पत्रकारिता का दोहन किया जा रहा है वह चिंता का विषय है। वही हाल ही में भारत सरकार द्वारा बीबीसी की रिपोर्ट को जिस तरह बैन किया उससे साफ ज़ाहिर है सरकार सच को स्वीकार नहीं करना चाहती।आलोचनात्मक टिप्पणी सरकार को स्वीकार नहीं है। सारा देश देख रहा है कि किस प्रकार सरकार और न्यायपालिका के मध्य रस्सा कशी का माहौल है। सरकार हर उस शक्ति को दबाने का प्रयास करती है जो सरकार की रीति और नीति पर उंगली उठाती है।
वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स 2021 की 180 देशों की सूची में भारत का स्थान 142 है। जबकि 2016 में भारत 133 वें स्थान के बाद भारत की रैंक में लगातार गिरावट आई जो कि चिन्ता का विषय है। 2014 से 2019 के बीच 198 मामले पत्रकारों पर गंभीर हमलों के सामने आये है। भारत में 2010 से वर्तमान समय तक लगभग 75 से अधिक पत्रकारों की हत्यायें हो चुकी हैं। परन्तु केवल 3 मामलों में दोषियों को सजा हुई है। ताज्जुब की बात यह है कि नेशनल क्राइम रिसर्च ब्यूरो के पास पत्रकारों के खिलाफ अपराध का कोई डाटा नहीं है। आज भी राजनैतिक साजिशों के फलस्वरूप देश के विभिन्न जेलों में लगभग 100 से अधिक पत्रकार अकारण बंद है।
कश्मीर के पत्रकार आसिफ सुल्तान को यूएपीए कानून लगा श्रीनगर के सेंट्रल जेल में रखे तीन साल से अधिक समय गुजर चुका है। आसिफ कश्मीर की अंग्रेजी पत्रिका “कश्मीर नैरेटर” में सहायक संपादक थे
पुलिस ने उन पर चरमपंथियों को पनाह देने, हत्या और हत्या का प्रयास का झूठा मुकदमा लगाया। बड़ी दाढ़ी और टोपी देख शेष भारत के लोग मुस्लिमों को पहली नज़र में ही आतंकी ठहरा देते है, लेकिन ये लोग ये नहीं देखते 99 फीसद मुस्लिम युवा जिन पर आतंकी होने का आरोप रहता है वे बाद में न्यायालय से बाईज्जत बरी हो जाते हैं। आसिफ भी कल आज़ाद होगा, लेकिन जिंदगी के ये जो कीमती वक़्त जेल के सीखचों में कट रहा है इसे कोई अदालत या सरकार लौटा पायेगा?
कश्मीर के पत्रकार आसिफ सुल्तान की भांति देश की जेलों में अकारण कैद पत्रकारों की आवाज को दबाया जा रहा है। लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की हत्या के प्रयास किए जा रहे हैं ऐसे में पत्रकारिता को सुरक्षित कहना अतिश्योक्ति होगी।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 के अनुसार प्राप्त अधिकारों का उपयोग कर हम भारत वर्ष में लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ पत्रकारिता की गरिमा को कायम रखने का प्रयास कर रहे हैं। क्योकि वर्तमान में पत्रकारिता अब भी स्वतंत्रता का अनुभव नहीं कर पा रही है। पत्रकारिता पर माफियाओं सहित राजनेताओं के दखल एवं अतिक्रमण का परिणाम है कि स्वतंत्र पत्रकारिता का अस्तित्व निरन्तर अपना महत्व खोता जा रहा है। पत्रकारिता के सिस्टम में चाटुकारिता की लगी दीमक ने निष्पक्ष पत्रकारिता का क्षरण कर दिया है। कारपोरेट जगत के बढ़ते प्रभाव का परिणाम है कि अब पत्रकारिता जनता की आवाज के स्थान पर धनबल का आधार बन गई है। सत्ता के इर्द गिर्द घूमने वाले पत्रकारों ने पत्रकारिता के स्तर को रसातल तक पहुचा दिया है। इस सबके बावजूद भी यदि हम कहें कि पत्रकारिता स्वतंत्र है तो यह केवल भ्रम मात्र होगा।
पत्रकारिता व पत्रकारों पर बढ रहे हमलों की गंभीरता को लेकर सम्पूर्ण भारत में पत्रकार सुरक्षा कानून पारित कराने के लिये आन्दोलनरत् हमारा संगठन प्रेस क्लब ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स चाहता है कि पत्रकारिता का सत्य सुरक्षित हो पत्रकार सुरक्षित हो उसका परिवार सुरक्षित हो। इसलिये पत्रकार सुरक्षा कानून हमारा अधिकार है। हमारी एकता ही हमारा हथियार है। पत्रकार एकता को कायम रखें।