सर्वशक्तिमान से संवाद करने के लिए भक्ति योग/ज्ञान योग में विशेषज्ञ होने की अनिवार्यता नहीं!
तीन साल पहले जब मैं संस्कार क्लास के माध्यम से 12 साल से कम आयु के अलग-अलग क्षमताओं से लबरेज़ बच्चों की मदद कर रही थी और उनमें सहज सरल ढंग से सुसंस्कार रोपित करने में अपना अहम योगदान दे रही थी उस समय मुझे कुछ स्पीच एक्सपर्ट्स से बात करने का मौका मिला, जिन्होंने बताया कि ज़रूरी नहीं सभी बच्चों को विशेष भाषा शैली की तालीम दी जाये बस इस बात का इल्म रहे कि उन्हें बताये गये संस्कार समझ आना चाहिए। कुछ ठीक से बोल नहीं पाते, ठीक से सुन नहीं पाते, कुछ में कुछ और कमियां हैं पर कोई बात नहीं, उन्हें तहज़ीबें प्रेमपूर्वक ऐसे सिखाया जाये कि वे इस खास प्रशिक्षण द्वारा हर बात अर्थ सहित अच्छी तरह से समझ बस जाएँ। खैर वो एक बिल्कुल अलग कहानी है कि हमने उस दरम्यान और क्या-क्या प्रयास किये। परन्तु कुछ आत्मीय मित्रों के साथ समय-समय पर गूढ चर्चाओं से, सर्वशक्तिमान के साथ वार्ता के अपने अलग-अलग तरीके व दृष्टिकोण जानने को मिलता रहा है। इसमें एक बुद्धिजीवी की सरल साधना, मुझे मेरे पूज्य पिता (मेरे आध्यात्मिक गुरु) से काफी मिलता-जुलता लगा, जिसके तहत “ईश्वर के इच्छानुसार हर चीज की स्वीकृति” थी। हालांकि मेरे पिता शिव रूद्राष्टकम व कुछ और नाम जाप प्रतिदिन करते थे, हर पूर्णिमा की रात उनके नेतृत्व एवं मार्गदर्शन में सपरिवार विशेष प्रार्थना करते थे पर वे ईश्वरीय इच्छा द्वारा दी गयी परिस्थितियों को गहरी आस्था के साथ स्वीकार करने पर जोर देते थे। यहाँ पर मैं एक विशेष बिंदु पर पाठकों का ध्यान आकर्षित करने का प्रयास कर रही हूँ, कि मानव जाति के बीच संपर्क स्थापित करने के लिए शब्दों से लबरेज़ वाणी की आवश्यकता होती है पर प्रार्थना जो की सर्वशक्तिमान, सार्वभौमिक दिव्य शक्ति के साथ संपर्क स्थापित करने का विशेष अनुष्ठान है, के लिए कोई विशेष भाषा/तौर-तरीका या खास प्रशिक्षण की अनिवार्यता नहीं। श्रद्धा भाव बिना शब्दों के भी संप्रेषित हो जाता है। भगवान के साथ संवाद करने के लिए भक्ति योग, ज्ञान योग आदि में विशेषज्ञ होने की आवश्यकता नहीं है। एक साधारण नाम जाप या ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण या पूर्ण मौन भी पर्याप्त है। महान जिज्ञासु साधकों ने आश्वस्त किया है व भरोसा दिलाया है कि दिव्य महाशक्ति हर भाषा समझते हैं और प्रत्युत्तर भी देर सबेर देते ही हैं। प्रार्थना हम जिस भी तरीके से अभिव्यक्त करते हैं, यह अभ्यास हमें अपनी सभी इंद्रियों, अपनी आंतरिक भावनाओं व अपने सभी प्रयासों, सुसंस्कारो का उपयोग अपने दैनिक जीवन में व्यक्त करने के लिए करने के लिए सहायक होता है। और उन्हें हमारे व्यक्तिगत आस्थाओं के अनुसार दिव्य शक्तियों के किसी भी रूप को समर्पित करता है, चाहे राम, कृष्ण, क्राइस्ट, अल्लाह, वाहेगुरु या मातृ शक्तियाँ या अन्य दिव्य शक्तियाँ हों। इस साधना में भगवान का कोई भी रूप दूसरे से श्रेष्ठ नहीं है। प्रत्येक को समान रूप से शुद्ध चेतना से दृढ़ सिद्धांतों की किसी भी एक विशेष अभिव्यक्ति के रूप में अपनी श्रद्धा का संप्रेषण किया जाता है। अंत में उदाहरण के लिए एक बार एक साधारण किसान था जो हाथ में किताब लेकर संडे प्रार्थना में शामिल होता था। एक बार वह किताब लेना भूल गया और घबराने के बजाय जो मन में आया व कहता गया और परमात्मा को अवगत कराया, हे प्रभु ! आप मेरे सभी इच्छाओं और भावों के ज्ञाता हैं। आपसे क्या कहूँ आप मेरी टूटी फूटी भाषा में निहित भाव समझ लें व अपने आशीर्वाद से अनुग्रहित करें। यही सच्ची आस्था की भावना है।
– शशि दीप ©✍
विचारक/ द्विभाषी लेखिका
मुंबई
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