चिंतन का आनंद!

वैसे तो हम जैसे साधारण मनुष्यों के लिए दुनिया को समझना, जीवन के रहस्यों को समझना या स्वयं को समझना आसान नहीं। फिर भी चिंतन करने से, व्यस्तता के बीच चित्त को शांत करके विभिन्न विषयों पर अलग अलग पहलुओं से विचार कर अध्ययन करने से निश्चित रूप से आत्मिक संतुष्टि के साथ-साथ जीवन को नयी दिशा मिलती है। इसीलिये खुद को जितना समझ पायी, लेखिका से ज्यादा विचारक समझती हूँ क्योंकि सच तो यही है कि विचारों को ही अभिव्यक्त करने की कोशिशों से डायरी में लिखना शुरू हुआ था। मुझे सटीक लिखना तो अभी भी नहीं आता और मन में प्रतिस्पर्धा या ऊहापोह न होने के कारण मैं खुद को इतना सटीक व उत्कृष्ट सृजन के लिए बाध्य भी नहीं करती, बल्कि स्वाभाविक प्रवाह को ज्यों-का-त्यों आने देती हूं। खुद ही लिखना, खुद ही पढ़ना, फिर और विचार विस्तार करते जाना, अध्ययन करना और अपनी उस आंतरिक दुनिया में प्रसन्नचित रहना। इस रूझान में संलग्न रहते हुए एक बात स्पष्ट समझ आया कि बेफ़िजूल का वक्त बरबाद करना बिल्कुल रास नहीं आता। जब आप अपने विचार प्रवाह का अध्ययन करने के इच्छुक होते हैं, जब आपके अंदर आत्मनिरीक्षण के लिए समय निकालने की खोज होती है तो आप अपने को सतत कर्मप्रधान बनाने के प्रति समर्पित रहते हैं भले कर्म भी कई प्रकार के होते हैं कुछ अनिच्छापूर्वक करना पड़ता है, औपचारिकतावश करना पड़ता है पर मनोयोग से किया कर्म सच्चा आनंद अनुभूत कराता है। इसलिए जहाँ कहीं भी ऐसा लगे कि हम मानसिक रूप से थक रहें हैं या अंदर कोई अपराधबोध हो कि महज़ किसी को बुरा न लगे ये सोच के कुछ कर रहे हैं तो प्रेमपूर्वक, वहां से विदा ले लेना ही अच्छा। उससे बेहतर अपने किसी ऐसे आत्मीय स्वजन को समय दें, माता-पिता, मार्गदर्शकों के सानिध्य में रहें या अपने आपको समय दें तो आंतरिक खुशी हो। मुझे याद है मेरे पूज्य पिता एक बेहद अनुशासित जीवनशैली रखने वाले अध्ययनप्रिय विचारक रहे, इसलिए उनसे फ़ोन वार्ता के लिए एक समय फिक्स करना पड़ता था, पचहत्तर साल की उम्र में भी हर समय घर में रहते हुए भी अपनी आध्यात्मिक साधना के अंतर्गत चिंतन, अध्ययन, निरिक्षण इत्यादि में तल्लीन रहते थे।

अतः हर वक्त बातचीत के लिए उपलब्ध हों ऐसा बिल्कुल नहीं। इस तरह मेरे व्यक्तिगत अनुभव से मुझे लगता है किसी भी राष्ट्र के नागरिक जितना कर्म प्रधान होंगे, अध्ययन को महत्त्व देंगे वह राष्ट्र उतना ही प्रगतिशील होगा। समस्त विकसित देश विकासशील देशों से इसीलिए ओनअग्रणी है क्योंकि उन्होंने अध्ययन को महत्त्व दिया। अध्ययन से चारित्रिक विकास होता है, जिससे मनुष्य नैतिक मूल्यों को भी ग्रहण करता है जो उसमें आत्मबल व आत्मसंयम प्रदान करते हैं। चिंतन प्रिय, विरादरी इसीलिये एकाकी महसूस नहीं करता उसके पास स्वयं को सार्थक रूप से व्यस्त रखने के कई उपाय रहते हैं यहाँ तक की मुसीबत या परीक्षा की घड़ी में भी उसके अंदर निहित यह आंतरिक प्रेरणा ही उसका परम व विश्वसनीय मित्र होता है। उसकी सभी समस्याओं का हल उसे चिंतन अध्ययन से ही प्राप्त हो जाता है।

 

  • – शशि दीप ©✍
  • विचारक/ द्विभाषी लेखिका
  • मुंबई
  • shashidip2001@gmail.com